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________________ REPORa i namailonia मो नांतर्मखो भवेत्-वह कैसा मूर्ख है, जो सबकी ओर देखता है पर अपनी ओर कभी नहीं देखता, कभी अंतर्मुख नहीं होता, अपने भीतर नहीं देखता। 'प्रिये! बाहर की दुनिया प्रतिबिंब की दुनिया है। सब प्रतिबिम्ब को देख रहे हैं।' बहत वर्ष पहले की घटना है। पूज्य गुरुदेव राजसमंद से विहार कर भाणा गांव में पधारे। मैं जिस कमरे __ में बैठा था, सामने एक दर्पण था। सांझ का समय। एक चिड़िया कांच पर आई। वह कांच की ओर झांकती और क्रोधाविष्ट होकर चोंच मारती। वहां से फिर उड़ जाती, दूसरी तरफ जाती। फिर कांच की ओर देखती और कांच पर चोंच मारती। लगभग एक घंटा तक यह नाटक जैसा चलता रहा। चिड़िया अपने ही प्रतिबिम्ब पर चोंच मार रही थी और यह समझ रही थी कि भीतर में कोई दूसरी चिड़िया बैठी है और मैं उसको चोंच मार रही हूं। चिड़िया एक नासमझ प्राणी है। मनुष्य समझदार प्राणी है। उसमें चिन्तन की शक्ति है किन्तु वह भी प्रतिबिम्ब में उलझा हुआ है। जम्बूकुमार ने कहा-'प्रिये! अपनी प्रतिच्छाया, अपना प्रतिबिम्ब और अपनी प्रतिध्वनि भ्रांति पैदा कर रही है।' पंचतंत्र की प्रसिद्ध कथा है-एक सियार बहुत चालाक था। उसने शेर से कहा-'महाराज! आप क्या अपनी वीरता पर गर्व करते हैं? आपसे ज्यादा शक्तिशाली शेर तो इस कुएं में है।' शेर आवेश में बोला-'मेरे से ज्यादा शक्तिशाली कौन है? मैं उसे अभी समाप्त कर देता हूं।' शेर कुएं के पास गया, भीतर झांककर देखा-भीतर शेर है। नीचे झुका, हत्थल उठाया तो देखा वह भी हत्थल उठा रहा है। शेर गरजा, सिंहनाद किया। भीतर से और तेज आवाज आई। उसने सोचा-शेर है तो शक्तिशाली। सियार ने ठीक कहा था। यह ऐसे नहीं मानेगा। अब तो नीचे जाकर ही उसे दबोचूंगा। इस सोच के साथ ही उसने कुएं में छलांग लगा दी। वहां शेर कहां था? वह किसको दबोचे? जो दिख रहा था, उसका अपना ही प्रतिबिम्ब था। अपनी प्रतिध्वनि, अपना प्रतिबिम्ब और अपनी प्रतिच्छाया भ्रांति पैदा करती है। एक बच्चे ने जिद कर ली–मैं सामने दिख रही छाया की चोटी को पकड़ेगा। बच्चा दौड़ने लगा तो छाया की चोटी भी आगे सरक गई। बच्चा परेशान हो गया। एक समझदार आदमी मिला, बोला-बच्चे! क्या कर रहे हो?' 'मैं इस चोटी को पकड़ना चाहता हूं और यह हाथ नहीं आ रही है। मैं दौड़ता हूं तो यह और आगे दौड़ जाती है।' उसने कहा-लो, मैं तुम्हें चोटी पकड़ा दूं।' बच्चा बोला-'बहुत अच्छी बात है।' उसने बच्चे का हाथ पकड़ा और सिर पर रख दिया, कहा-'इसको पकड़ो।' उसने अपनी चोटी को पकड़ा और छाया की चोटी हाथ में आ गई। २३६ गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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