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________________ विकसित हो जाती है। तेजसशरीरं अनुग्रहनिग्रहसमर्थ-तैजस शरीर अनुग्रह और निग्रह-दोनों करने में समर्थ है। अभिशाप भी दे सकता है और वरदान भी। आशीर्वाद भी दे सकता है और संताप भी। तपस्वी के मन में करुणा आ गई, उसने अनुग्रह कर दिया और आंख खुल गई। युवक बड़ा प्रसन्न हुआ, धन्यवाद दिया-'तपस्वीवर! बड़ी मेहरबानी की। अब मैं देख रहा हूं। मेरा जीना सार्थक हो गया।' तपस्वी अपने स्थान पर चला गया और वह युवक अपने स्थान पर। कुछ दिन बीते। एक दिन तपस्वी कहीं जा रहा था। उसने देखा-आगे-आगे एक युवक जा रहा है और उससे आगे एक स्त्री जा रही है। स्त्री के पीछे युवक दौड़ रहा है। तपस्वी ने ध्यान से देखा तो अवाक् सा रह गया 'अरे! यह तो वही युवक है, जिसे मैंने दृष्टि दी थी।' संन्यासी कुछ तेज चला, उस युवक तक पहुंच गया। युवक को देखा, पहचान लिया, कहा-'युवक! ठहरो।' युवक ठहर गया। संन्यासी ने पूछा-'यह कौन है आगे?' युवक-'यह वेश्या है।' संन्यासी-तुम यह क्या कर रहे हो?' युवक कुछ शर्मिन्दा हुआ। संन्यासी ने कहा-'तुम्हें यह दृष्टि किसने दी थी?' 'संन्यासीवर! आपने ही तो दी थी। 'मैंने क्या इसलिए दी थी कि तुम वेश्या के पीछे दौड़ो।' 'संन्यासीवर! एक कमी रह गई। आपने यह बाह्य दृष्टि तो दे दी पर अंतर्दृष्टि साथ में नहीं दी। अगर अंतर्दृष्टि और दे देते तो मैं कभी वेश्या के पीछे नहीं दौड़ता।' जम्बूकुमार ने नभसेना से पूछा-'प्रिये! शोभा कोरी दृष्टि से बढ़ती है या अंतर्दृष्टि से? प्रतिष्ठा किसकी बढ़ती है? जिसे अंतर्दृष्टि प्राप्त है उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है या बाह्य आंख वाले की?' 'स्वामी! चक्षुष्मान् की।' _ 'प्रिये! श्रेष्ठ होता है वह चक्षुष्मान्, जिसकी अंतर्दृष्टि जागृत है। केवल बाहरी आंख वाले तो बहुत अनर्थ करते हैं, देखते भी नहीं हैं। उन्हें वह आंख प्राप्त नहीं होती, जिससे सचाई को देख सके।' ___ 'प्रिये! मैंने सचाई को देखा है। सुधर्मा स्वामी ने मेरी अंतर्दृष्टि जागृत कर दी है इसलिए मैं उत्पथ को छोड़कर सन्मार्ग पर चल रहा हूं। ___ मैं केवल बाह्य दृष्टि से काम नहीं लेता, मैं अंतर्दृष्टि से काम ले रहा हूं। अब तुम बोलो-कौन सही है और कौन गलत?' ___प्रिये! तुम कहती हो इनको छोड़ने से शोभा नहीं बढ़ेगी। ऐसा लगता है-तुम अभी पदार्थ की प्रकृति को नहीं जानती, इन विषयों की प्रकृति को नहीं जानती। अगर इनकी प्रकृति को जान लो ' तो तुम ऐसी बात कभी नहीं कहोगी। प्रिये! तुमने ईख देखा है?' गाथा विजय की २३४
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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