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________________ 3) / Ooh / गाथा परम विजय की 'स्वामी! विनीत घोड़े की। 'प्रिये! दुःखी कौन बना? अविनीत घोड़ा बना या विनीत घोड़ा?' 'स्वामी! अविनीत घोड़ा।' 'प्रिये! शोभा उसकी होती है जो विनीत होता है, अनुशासित होता है। मैंने भी सुधर्मा स्वामी का अनुशासन पाया है। उस घोड़े को जिनदास श्रावक का शिक्षण मिला था और मुझे सुधर्मा स्वामी का शिक्षण मिला है। मैंने सुधर्मा स्वामी से यह सीख लिया है दृष्टिमान बनो, चक्षुष्मान बनो।' चक्षुष्मान का तात्पर्य है-अंतर्दृष्टि संपन्न बनो। भीतर की आंख खुले, केवल बाहर की नहीं। बाहर की आंख से हम एक वस्तु को देखते हैं किन्तु भीतर की आंख खुले बिना उस वस्तु को भी सही रूप में नहीं जान सकते। ____पुरानी घटना है। एक हाकम के पास बारहठजी का कोई मामला था। एक पक्ष से हाकम को रिश्वत मिली, पैसा मिला। हाकम न्याय पथ से च्युत हो गया। बारहठजी बहुत तेज थे। जब हाकम ने फैसला सुनाया तो सारी गड़बड़ी तत्काल सामने आ गई। बारहठजी बोले सुण हाकम संग्राम कहे, आंधो मत वै यार, औरां रे दो चाहिजे, थारै चाहिजे चार। थारे चाहिजे चार, दोय देखण ने बारे, दोय हिया रे माय, तिण स्यू न्याय निहारे। जस अपजस रहसी अखी, समय बार दिन चार। सुण हाकम संग्राम कहे, आंधो मत वै यार।। अरे हाकम! अंधा हो रहा है, गलत फैसला दे रहा है। सामान्य मनुष्य का तो दो आंख से भी काम चल जायेगा परन्तु तुम हाकम की कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हारे तो चार आंख चाहिए-दो बाहर को देखने के लिए और दो भीतर झांकने के लिए। दो से बाहर को देख और दो से भीतर को देख। भीतर से इसलिए देखो कि न्याय को स्वयं निहार सको। यह समय तो चला जाएगा किन्तु जस-अपजस तुम्हारे साथ रहेगा इसलिए तुम सोचो, अन्याय मत करो। ___ एक है चर्मचक्षु और एक है अंतश्चक्षु। चर्मचक्षु से हम रूप, रंग, आकार आदि को देखते हैं किन्तु जो अंतश्चक्षु है, अंतर्दृष्टि है, उससे सारे संसार को देखते हैं। भगवान महावीर के लिए वीरत्थुई में एक शब्द आता है- 'अणंतचक्खु' महावीर अनंतचक्षु थे। जो केवलज्ञानी होता है, वह अनंतचक्षु होता है। जिसके केवल दो ही आंख है, भीतर की आंख नहीं खुलती है, वह देखता हुआ भी नहीं देखतापश्यन्नपि न पश्यति। एक तपस्वी संन्यासी जा रहा था। रास्ते में एक अंधा युवक मिल गया। अंधे युवक को पता चलाकोई तपस्वी संन्यासी है। वह नमस्कार कर बोला-'महाराज! यह संसार मेरे लिए कुछ भी नहीं है। में देख नहीं पा रहा हूं। आप कृपा करें, अनुग्रह करें तो मेरी आंख खुल जाए।' तपस्वी को दया आ गई और उसने अनुग्रह कर दिया। कुछ तपस्वी ऐसे होते हैं, जिनका तैजस शरीर शक्तिशाली होता है, तेजोलब्धि २३३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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