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________________ () ( (6) (h . जानने के लिए व्याकुल बन गई। सिद्धि बुद्धि के घर पहुंची। दोनों बहिनों ने एक-दूसरे का कुशलक्षेम पूछा। वार्तालाप के मध्य प्रसंगवश सिद्धि ने सुखी जीवन का राज पूछा। बुद्धि ने सरलता के साथ ब्राह्मण के मिलन और देवी की आराधना की बात बता दी। सिद्धि ने साधना की पूरी विधि समझ ली। उसने भी विधिपूर्वक छह मास तक मंत्र की साधनाआराधना की, देवी प्रकट हुई। सिद्धि ने भी वही समस्या प्रस्तुत की। देवी ने उसे भी प्रतिदिन सोने की एक मोहर देने का वरदान दे दिया। सिद्धि का जीवन भी सुखी हो गया। बुद्धि ने देखा सिद्धि का जीवन अच्छा हो गया। अवश्य ही उसने मंत्र की साधना कर देवी को प्रसन्न किया है। 'स्वामी! व्यक्ति अपने सुख से सुखी बनता है या नहीं, किन्तु दूसरे को सुखी देख वह दुःखी अवश्य बनता है। जैसे उसे अपना दुःख सताता है, वैसे ही उसे दूसरों का सुख भी सताता है। अपना दुःख और दूसरों का सुख-दोनों उसे सालते रहते हैं। यह ईर्ष्या की मनोवृत्ति ही निषेधात्मक सोच को संजीवनी देती है।' बुद्धि ने सोचा-मैं सिद्धि से पीछे कैसे रहूं? उसकी लालसा प्रबल हो गई। सोने की एक मोहर से जो सुख मिला था, वह समाप्त हो गया। उसने पुनः मंत्र की आराधना का निश्चय किया। छह माह तक बुद्धि ने फिर साधना की, देवी प्रकट हुई। देवी ने पूछा-'बहिन! अब तुम्हें क्या दुःख है?' 'देवी मां! आप सिद्धि को भी एक मोहर देती हैं। मुझे उससे दुगुना चाहिए। आप मुझे प्रतिदिन दो मोहर दें तो आपका अनुग्रह होगा।' गाथा देवी ने इस मांग को भी पूरा कर दिया। अब बुद्धि को प्रतिदिन दो सोने की मोहरें मिलने लगीं। उसके परम विजय की जीरो जीवन में ठाट-बाट हो गया। उसने भूमि खरीद ली, नया मकान बना लिया। सिद्धि भी बुद्धि के बढ़ते वैभव को सहन नहीं कर सकी। उसमें भी तृष्णा और लोभ का भाव जाग गया। उसने भी मंत्र की आराधना की। देवी से दो मोहरों का वर प्राप्त किया। यह एक क्रम जैसा बन गया बुद्धि मंत्र की आराधना कर सिद्धि से दुगुने धन का वरदान मांगती और सिद्धि पुनः आराधना कर बुद्धि के समकक्ष धन की मांग करती। 'स्वामी! ईर्ष्या और लोभ की वृत्ति ने उन दोनों की विवेक चेतना को ग्रस लिया। एक-दूसरे से अधिक प्राप्त करने की इस वृत्ति ने दोनों के स्नेह संबंधों का रस सोख लिया। दोनों बहिनें एक-दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर खोजने लगीं।' देवी भी मंत्र-साधना के इस प्रकार के उपयोग से क्षुब्ध हो उठी। ईर्ष्या और लोभ की ज्वाला में जल रही बुद्धि और सिद्धि एक दूसरे के सर्वनाश का षड्यंत्र रचने लगी। उन्होंने सोचा इस बार मंत्र की आराधना कर ऐसा वर मांगें कि दूसरे की फिर कभी आंख भी नहीं खुल सकेगी। ईर्ष्या एक ऐसी बीमारी है जिससे ग्रस्त व्यक्ति दसरे का अनिष्ट करने में भी नहीं सकुचाता। दूसरे के अनिष्ट, उपहास और अपमान में उसे सुखानुभूति होती है। लोभी और ईर्ष्यालु व्यक्ति के हृदय में करुणा के स्थान पर क्रूरता की धारा बहने लगती है। २२६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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