SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धि और बुद्धि के मन में उत्पन्न ईर्ष्या और लोभ ने क्रूरता को जन्म दे दिया। दोनों हर क्षण एक दूसरी का अनिष्ट सोचने लगी। 'स्वामी! उन दोनों के पास धन वैभव की कोई कमी नहीं थी, सब कुछ उनके पास था किन्तु संतोष नहीं था। यह असंतोष लोभ और ईर्ष्या की अग्नि को उद्दीप्त कर रहा था।' 'स्वामी! लोभांध और ईर्ष्यान्ध मनुष्य क्रूर हृदय बन जाता है। उसमें हिताहित का विवेक नहीं होता । वह दूसरों का अनिष्ट करने के लिए अपना अनिष्ट करने में भी नहीं सकुचाता।' ‘स्वामी! बुद्धि ने पुनः मंत्र की आराधना की। देवी प्रकट हुई। देवी ने क्षुब्ध स्वर में पूछा–'क्या अभी तक तुम्हारी लालसा शांत नहीं हुई?' 'देवी मां ! आज केवल अंतिम बार वरदान चाहती हूं।' 'बोलो! क्या चाहिए?' ‘देवी मां! जो मैं मांगूं, उससे दुगुना इसी क्षण सिद्धि को मिलना चाहिए।' 'हां, ऐसी ही होगा।' 'मां! मेरी एक आंख फोड़ दो। ' 'तथास्तु।' देवी के यह कहते ही बुद्धि एकाक्ष हो गई और सिद्धि की आंखों की ज्योति विलीन हो गई। नभसेना ने कथा का उपसंहार करते हुए कहा-'स्वामी ! लोभ के कारण बुद्धि काणी और सिद्धि अंधी हो गई। दोनों ने लोभ के वशीभूत होकर अपने हाथों से ही अपने विनाश का बीज बो दिया। अब वे दोनों पश्चात्ताप करती हैं—यदि हम लोभ नहीं करती तो हमें यह दिन देखना नहीं पड़ता।' 'स्वामी! उन्हें धन, वैभव, प्रासाद - सब कुछ प्राप्त हो गए फिर भी उनकी तृष्णा नहीं मिटी । इतना कुछ मिलने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। इस लोभ और असंतोष ने ईर्ष्या को जन्म दिया, क्रूरता को जन्म दिया, अनिष्ट करने के संकल्प को जन्म दिया। लोभ और ईर्ष्या की आग में उनका सुख-चैन स्वाहा हो गया । ' 'स्वामी! पड़ोसी और संबंधीजनों को इस घटनावृत्त का पता चला। उन्होंने उनको खूब धिक्कारा । उनकी शोभा, प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। उनके दुःख और पश्चात्ताप को कौन माप सकता है ? 'स्वामी! आपको भी जो प्राप्त है, उसमें संतोष नहीं है। यह लोभ और असंतोष आपको कहां ले जाएगा? फिर आप भी वैसा ही पश्चात्ताप करेंगे, जैसा सिद्धि और बुद्धि ने किया था। इसलिए आप सोचें, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें।' नभसेना ने अपने वक्तव्य को विराम दे कर जम्बूकुमार की ओर दृष्टिक्षेप किया। वह जम्बूकुमार के मुख पर उभरने वाले भावों को पढ़ने का प्रयत्न करने लगी। उसके मन में भी यही प्रश्न उभर रहा था-क्या मेरा प्रयत्न सफल होगा? क्या मेरी बात जम्बूकुमार के हृदय का स्पर्श कर पाएगी ? २३० m गाथा परम विजय की m "
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy