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________________ 'नभसेना! मुझे कोई पश्चात्ताप नहीं करना पड़ेगा किन्तु तुम यह बताओ कि ये सिद्धि और बुद्धि कौन थीं? उन्हें क्यों पश्चात्ताप करना पड़ा ?' 'स्वामी! सिद्धि और बुद्धि-दो बहनें थीं। दोनों बहुत दरिद्र थीं। उनके पास आय के साधन नहीं थे। दोनों बहिनें रोज जंगल में जातीं। लकड़ियां काटतीं और गोबर के उपले बीनतीं। उनको बेचकर जैसे तैसे अपना काम चलातीं। एक दिन बुद्धि लकड़ियां काटने के लिए जंगल में काफी दूर चली गई । उसे वहां विद्यासिद्ध ब्राह्म मिला। बुद्धि की दयनीय दशा को देख उसका मन करुणा से भर गया । उसने पूछा- 'बहिन ! तुम कौन हो ? क्या करती हो?' ‘भाई! मैं एक दुखियारी महिला हूं। लकड़ियां काटती हूं और गोबर के उपले बीनती हूं। अपना जीवनयापन भी मुश्किल से कर पाती हूं।' ब्राह्मण उसकी व्यथा से द्रवित हो गया। उसने कहा- 'यहां जंगल में देवी का मंदिर है। तुम देवी की आराधना करो। छह माह तक तुम्हें साधना करनी होगी। अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होगा । खाद्य संयम और मंत्र जप करना होगा।' बुद्धि ने कहा- 'मैं अवश्य यह साधना कर लूंगी। क्या इससे सचमुच मेरा दारिद्र्य मिट जाएगा ?' ब्राह्मण बोला-'यदि तुमने निष्ठा से आराधना की तो अवश्य फल मिलेगा।' ब्राह्मण ने देवी की आराधना का मंत्र सिखा दिया । बुद्धि बहुत खुश हुई। उसने दूसरे दिन से ही मंत्र की आराधना और साधना प्रारंभ कर दी। तप-जप के साथ साधना करते करते छह मास बीत गए। मंत्र सिद्ध हो गया। देवी प्रकट हुई। उसने पूछा- 'बहिन ! तुमने मेरी आराधना किसलिए की ?' 'देवी! मैं बहुत दरिद्र हूं। खाने को पैसे नहीं हैं।' 'बोलो, तुम क्या चाहती हो?' 'मेरी दरिद्रता मिट जाए, ऐसा वरदान दें।' 'बहिन! क्या दूं तुम्हें?' ‘देवी मां! यदि रोज सोने की एक मोहर मिल जाए तो मेरी समस्या हल हो जाए।' 'बहिन! कल से तुम्हें रोज सोने की एक मोहर मिलेगी।' बुद्धि ने देवी को प्रणाम कर आभार व्यक्त किया। अब उसे रोज सोने की एक मोहर मिलने लगी । खाने-पीने की समस्या समाहित हो गई। रोज जंगल जाकर लकड़ियां काटने और उपले बीनने की अपेक्षा नहीं रही। एक मोहर सोने से उसे रोटी - पानी ही नहीं, अच्छे वस्त्र परिधान भी सुलभ होने लगे। उसके जीवन की दशा सुधर गई। सिद्धि ने देखा-बुद्धि इन दिनों बहुत खुश है। उसने जंगल में काम करना भी छोड़ दिया है। उसने सोचा-क्या बात है? क्या कोई छिपा खजाना उसे मिल गया है। सिद्धि बुद्धि के सुखी जीवन का रहस्य २२८ Im m गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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