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________________ गाथा परम विजय की चर्चा का एक विषय बनता है-सुख, प्रिय संवेदन। व्यक्ति अपने सुख में बीते हुए क्षणों को याद करता रहता है। वह उनकी स्मृति और चर्चा करता रहता है। नभसेना श्रेष्ठी कुल में पली-पुसी। उसके पिता ने अतुल धन-वैभव दहेज में दिया। उसने सदा मनोनुकूल और स्वादिष्ट भोजन किया। वह सदा सुख के झूले में झूली। उसका इन सबमें आकर्षण स्वाभाविक था। नभसेना ने सोचा-हमारी यह चाह भी अस्वाभाविक नहीं है कि अच्छा खाएं, अच्छा पीएं, मौज-मस्ती में जीएं। जो सुख-भोग के साधन मिले हैं, उनका उपभोग करते हुए जीवन का आनंद लेते रहें। किन्तु हमारी यह चाह तभी सफल हो सकती है, जब हमारी चाह के अनुकूल जम्बूकुमार का मानस बने। उसकी विरक्ति अनुरक्ति में बदले। नभसेना ने जम्बूकुमार के मानस को बदलने की अभीप्सा के साथ कहा-स्वामी! आपने नीति का यह सूक्त सुना है-संतोषः परमं सुखम्-संतोष परम सुख है।' 'हां प्रिये!' 'स्वामी! क्या आप संतोष में परम सुख मानते हैं?' जम्बूकुमार ने नभसेना के कथन का समर्थन करते हुए कहा-'प्रिये! इस सुभाषित से कौन असहमत हो सकता है?' 'स्वामी! आप इस नीति वाक्य को भी जानते हैं-असंतोष परम दुःख का कारण है?' 'हां प्रिये! जब तक मन में संतोष का भाव नहीं होगा तब तक आकांक्षाएं हमें दुःखी बनाती रहेंगी।' 'स्वामी! आपमें संतोष कहां है?' 'प्रिये! मेरे मन में तो कोई असंतोष नहीं है।' 'स्वामी! मुझे नहीं लगता कि आप संतुष्ट हैं?' 'प्रिये! तुम यह कैसे कह रही हो?' 'स्वामी! आपको धन-वैभव, स्वस्थ शरीर, यौवन, चित्त को आह्लाद देने वाली आठ नव यौवनाएं प्राप्त हैं। फिर भी आप संतुष्ट नहीं हैं। यह संपदा किसी महान् पुण्यवान् आत्मा को ही मिलती है। इससे आपकी शोभा है, प्रतिष्ठा है। आप इसे छोड़कर अच्छा नहीं कर रहे हैं।' ___'स्वामी! आप यदि इसी प्रकार लोभ करेंगे। जो प्राप्त है, उसमें संतुष्ट नहीं होंगे तो वैसे ही पश्चात्ताप करेंगे, जैसे सिद्धि और बुद्धि को करना पड़ा था।' २२७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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