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________________ तोने परणावण तणी रे हां, म्हारै हंस घणी मन मांहि। मेरे नंदना। ओ पूर मनोरथ म्हारो रे हां, मोनें साले नहीं मन माहि। मेरे नंदना। 'जम्ब! अगर तू मुझे मां मानता है तो मेरी इस आशा को पूर्ण कर। अन्यथा तू जाने और तेरा काम जाने।' मां ने बहुत कड़वी बात कह दी। जम्बूकुमार विनीत था, उसने सोचा-अब क्या करूं? मैं असमंजस और दुविधा की स्थिति में फंस गया। मां के इस कथन पर वह सोचने के लिए विवश बन गया। एक अंतर्द्वन्द्व शुरू हो गया मुझे क्या करना चाहिए? एक ओर मुझे साधु बनना है, दूसरी ओर मां विवाह की बात कह रही है। स्थिति यह है कि मैं ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर आया हूं। मां की बात न मानूं तो मां को बहुत आघात पहुंचेगा, बहुत दुःख होगा। यदि मां की बात मान कर विवाह करूं तो मेरे व्रत का क्या होगा? मेरा संकल्प कैसे सिद्ध होगा? जम्बूकुमार सहसा कुछ निर्णय नहीं कर सका किन्तु मां के ममत्व भरे इन वचनों ने जम्बूकुमार के अंतःकरण को आंदोलित कर दिया। एक अनुश्रुत कथा है। किसी क्रूर पुत्र ने प्रबल आवेश के क्षणों में मां का वध कर दिया और उसका कलेजा निकाल लिया। वह कलेजे को लेकर जा रहा था। आगे ऊबड़-खाबड़ जमीन आ गई। अंधेरा भी था। कलेजा बोल उठा-'बेटा! आगे गिर जायेगा, सावधान रह।' बेटे ने सोचा-'अनर्थ हो गया। मैंने तो सोचा था कि मां मेरी विरोधी है, शत्रु है और यह तो मेरी इतनी चिंता करती है।' वह उसी क्षण बिलख उठा, रोने लग गया। उसे अपना अपराध-बोध शल्य की तरह चुभने लगा। जब मां की ममता सामने आती है तब पाषाण हृदय भी पिघल जाता है। शिकारी जंगल में शिकार के लिए गया। उसने एक हरिणी को देखा। निशाना साध लिया। तीर चलाने के लिए समुद्यत हुआ। हरिणी ने शिकारी से अनुरोध किया 'तुम कुछ क्षण ठहरो। बाण मत चलाओ।' शिकारी ने साश्चर्य पूछा-'मैं बाण को क्यों न चलाऊं?' हरिणी भावपूर्ण स्वर में बोली-'पहले मेरी बात सुनो आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जितांगाद्, मां मुंच वागुरिक! यामि कुरु प्रसादम्। अद्यापि सस्यकवलग्रहणादभिज्ञाः, मन्मार्गवीक्षणपरा शिशवो मदीयाः।। तुम मेरे शरीर का सारा मांस ले लो। केवल दो स्तनों को छोड़ दो। मुझ पर कृपा करो, यह तुम्हारा बड़ा प्रसाद होगा। क्योंकि मेरे बच्चे इतने छोटे हैं कि वे अभी घास खाना भी नहीं जानते। वे मेरे स्तनों के दूध पर निर्भर हैं। वे अभी भूखे हैं, दूध पीने की प्रतीक्षा में हैं। यदि उनको दूध नहीं मिला तो वे तड़प जाएंगे।' मां के ममता भरे इन शब्दों को सुनकर शिकारी को दया आई, उसने तीर पुनः अपने तरकश में रख लिया। मां की ममता इतनी विचित्र होती है। विनीत पुत्र उसका मूल्यांकन करता है। कोई-कोई ऐसा अविनीत होता है जो मां के प्रति क्रूर व्यवहार करता है। कुछ दिन पहले एक परिवार आया, किसी ने कहा-'यह पुत्र अपनी मां को गाली देता है।' विनीत पुत्र ऐसा सोच भी नहीं सकता, कल्पना भी नहीं कर सकता। पर इस दुनिया में अकल्पित क्या है? असंभव क्या है? १२८ गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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