SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा परम विजय की उस युग में सामान्यतः यह परंपरा थी कि साधु एक बार भोजन करते और वह भी मध्याह्न में - एगभत्तं च भोयणं । मां ने कहा——जात! चाहे कितनी गर्मी हो, सुबह तुम्हें प्रातराश नहीं मिलेगा। भूख-प्यास, परीषहों को सहन करना कितना कठिन है? क्या तुमने बाईस परीषहों को समझ लिया, जो साधुपन की बात कर रहे हो ?' ‘जात! तुमने यह कैसे सोच लिया कि मैं साधु बनूंगा? साधु जीवन एक कठोर शरीर वाले के लिए तो संभव है। जिसका शरीर मजबूत है, वह साधु जीवन के कष्टों को सहन कर सकता है। तुम्हारा शरीर इतना कोमल है कि इस शरीर से तुम साधु जीवन को पाल नहीं सकते। जात! तू साधु बनना चाहता है, यह अच्छी बात है किन्तु पहले गंभीरता से सोच-विचार करो । ' यह सब कौन बोल रहा है? हम स्थूल भाषा में कहेंगे - जम्बूकुमार की मां बोल रही है। वास्तव में मां नहीं, मोह बोल रहा है। मां समझदार श्राविका थी। धर्म की धोरण थी, धर्मानुरागिणी थी । किन्तु जब मोह का उदय हो जाता है तब भाषा मोह से भावित हो जाती है। मोहाकुल मां का स्वर संयम पथ में अवरोध बन रहा है जम्बू ! कह्यो मान ले जाया ! मत लै संजम भार । संजम मार्ग दोहिलो जम्बू! चालणो खांडे री धार । नदी किनारे रूंखड़ो जम्बू ! जद कद होवे छार ।। मां ने कहा-'बेटा! संयम जीवन दुष्कर है। यह तलवार की धार पर चलना है।' 'बेटा! यह जीवन नदी के किनारे का रूंखड़ा है, वृक्ष है। यह रूंखड़ा कब गिर जाए, इसका कोई पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में तुम साधुपन की बात छोड़ दो।' मां ने इस प्रकार बहुत बातें कही किंतु जम्बूकुमार के मानस में कोई प्रकंपन नहीं हुआ। उसका निश्चय अटल बना रहा। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा-'मां ! जो कायर आदमी होता है वह संयम के कठिन मार्ग से घबराता है। जो शूरवीर हैं, उनके लिए यह मार्ग कठिन नहीं है। मैं शूरवीर बन कर संयम जीवन का पालन करूंगा। मां! यदि मैंने तुम्हारा स्तनपान किया है तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करूंगा।' मां निःश्वास छोड़ती हुई बोली-'बेटा! आज मैंने समझ लिया है कि जम्बूकुमार जैसा जिद्दी लड़का कोई नहीं है। इतना आग्रही है कि एक बात भी नहीं सुनता। मैं जो भी बात कहती हूं, तू उसे काट देता है। मैं नहीं जानती थी कि तू इतना हाजिरजवाब है। कहीं मुझे टिकने ही नहीं देता ।' हिव माता सुणे वले, इम कहे रे हां, तू ग्रही न छोड़े टेक। मैं विविध वचन कह्या घणा रे हां, तिण थे नहीं मानी एक ।। 'पुत्र! अब मैं तुम्हें अंतिम बात कह रही हूं- अगर तू मुझे मां मान रहा है और तू यह समझ रहा है कि यह मेरी मां है तो मेरी एक बात तुम्हें माननी होगी। वह बात यह है कि मेरे मन में बहुत दिनों से एक लालसा, आशा और प्यास थी कि मैं पुत्र को परणाऊंगी, बहुएं लाऊंगी और मेरी सेवा होगी।' १२७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy