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________________ गाथा परम विजय की जसत्थि मच्चुणा सक्ख, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सोऊ कंखे सुए सिया ।। एक व्यक्ति यह सोचता है-मौत के साथ मेरी मित्रता है, इसलिए मुझे नहीं सताएगी। वह आदमी यह सोच सकता है कि मैं साधना अभी नहीं, बाद में करूंगा। जो व्यक्ति यह सोचता है - जब मौत आयेगी तब द्वार से निकलकर इतना तेज भाग जाऊंगा कि मौत मुझे पकड़ ही नहीं पाएगी। वह आदमी सोच सकता है - मैं साधना बाद में करूंगा। जो यह सोचता है - मैं तो कभी मरूंगा नहीं। मरने वाले दूसरे हैं। वह व्यक्ति यह सोच सकता है—मैं साधना बाद में करूंगा। मौत से मैत्री, मौत से पलायन की शक्ति, अमरता का विश्वास-ये तीन बातें होती हैं तो आदमी आ की बात सोचता है। किन्तु न तो मेरी मौत के साथ मित्रता है, न मैं मौत से तेज दौड़ना जानता हूं और न मैं अमर हूं। इसलिए मैं आगे की बात कैसे करूं? युधिष्ठिर के पास कोई याचक आया, बोला- 'महाराज ! मुझे आप कुछ दें।' युधिष्ठिर ने कहा- 'आज नहीं, कल आना। कल दूंगा।' भीम ने यह सुना, वह बाहर गया और नगाड़े बजाने का निर्देश दे दिया। नगाड़े बजने लगे। युधिष्ठिर ने पूछा- 'आज नगाड़े किसलिए बज रहे हैं?' उत्तर मिला- 'भीम के आदेश से बज रहे हैं। ' युधिष्ठिर ने भीम को बुलाया, पूछा—'नगाड़े क्यों बज रहे हैं?' उसने कहा-'आज तो बहुत खुशी का दिन है।' ‘किस बात की खुशी है?’ 'खुशी इस बात की है कि हमारे भाई धर्मराज युधिष्ठिर अमर बन गये। ' 'किसने कहा- मैं अमर बन गया ?' 'अभी आपने ही तो कहा था—आज नहीं, कल दान दूंगा। इसका मतलब है कि आज तो आप अमर बन गये। आपको पता चल गया कि आज तो मैं नहीं मरूंगा।' आज ही एक परिवार आया फतेहपुर का । इकचालीस वर्ष का युवक अचानक चला गया, हार्ट फेल हो गया। बीमारियों की रफ्तार भी बढ़ी है, हार्ट फेल होने की रफ्तार भी बढ़ी है। इस अवस्था में कौन कह सकता है कि मैं कल करूंगा या आगे करूंगा ? वर्तमान क्षण पर तो हमारा अधिकार है, आगे के क्षण पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। इसलिए यह अनुभव की वाणी है - जो करना है वह इसी क्षण में कर लो। आचारांग सूत्र का एक मर्मस्पर्शी वचन है- 'इणमेव खणं वियाणिया ।' यही क्षण मूल्यवान है, इस क्षण का मूल्य आंको। वर्तमान क्षण में तुम क्या कर रहे हो ? वर्तमान का क्षण तुम्हारे हाथ में है, उस पर तुम्हारा अधिकार है। उससे आगे की बात मत सोचो। एक पुरानी कहानी है। एक सेठ इतना लोभी था कि हर क्षण धंधे में लगा रहता था। एक कथावाचक १२३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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