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________________ यह मोह से उपजा हुआ तर्क है। जब मोह की चेतना प्रबल होती है तब तर्क एक प्रकार का होता है और जब मोह की चेतना विलीन होती है तब तर्क दूसरे प्रकार का बन जाता है। मां की मोह चेतना प्रबल हो गई, उसने कहा-'बेटा! तुम दीक्षा की बात छोड़ दो। यह संभव नहीं है।' हम तेरापंथ के इतिहास को देखें। दीक्षा के संदर्भ में कितने मोहक घटनाचक्र सामने आये । महासती सरदारांजी का जीवन पढ़ें तो लगेगा - ऐसा संग्राम हुआ है, ऐसा संघर्ष हुआ है कि जिसे पढ़ कर रोमांच हो जाए। एक ओर प्रवर क्षायोपशमिक चेतना, दूसरी ओर प्रबल मोहोदय की चेतना । दोनों का भारी संघर्ष चला। महासती सरदारांजी ने दिल को दहलाने वाले कष्ट सहन किए। और भी अनेक वैरागी बने, किसी को खोड़े में डाल दिया, किसी को कमरे में बंद कर दिया। बड़ी कठिनाइयां प्रस्तुत की गईं। ‘महामोहविडम्बनेयं’—–मोह के कारण सब कुछ होता है। मूल समस्या मोह की है । सारा संसार किस आधार पर चल रहा है? मोह के आधार पर ही चल रहा है। माता के मन में प्रबल मोह की चेतना जाग गई। मां ने कहा-'बेटा! तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता की कितनी प्रतिष्ठा है । तुम यह भी नहीं जानते कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति कितना स्नेह है। क्या तुम्हारे हृदय में करुणा नहीं है? क्या तुमने यह नहीं सोचा कि ऐसी बात कहकर मैं मां के दिल को कितना दुःखाऊंगा ? मां को कितनी पीड़ा होगी ? तुम्हारे भीतर करुणा ही नहीं है तो तुम क्या साधु बनोगे ? तुम कितने कठोर हो? इतना कठोर आदमी साधु नहीं बन सकता।' मां ने कहा‘भगवान महावीर ने भी मां को दुःख नहीं पहुंचाया। जब वे गर्भ में आए, तब यह संकल्प कर लिया–मां को मेरे प्रति मोह बहुत है इसलिए जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं साधु नहीं बनूंगा। क्या तुम महावीर से बड़े हो ? महावीर बड़े या तुम?' 'वत्स! तुम्हारी इच्छा है तो तुम भले ही साधु बन जाना पर एक संकल्प तुम ले लो-जब तक मातापिता जीवित हैं तब तक मैं साधुपन की बात नहीं करूंगा।' मां ने तर्क बहुत सुन्दर दिया—महावीर का आदर्श सामने है । सूत्रकार कहते हैं-'जं आइण्णं तं समायरे - हमारे पूर्वजों ने जो आचरण किया, उसका अनुसरण करो। जब महावीर ने ऐसा आचरण किया है, तब तुम भी उसका अनुगमन करो। बस आज से इस चर्चा को समाप्त कर दो और यह संकल्प ले लो - जब तक माता-पिता जीवित हैं तब तक मैं साधु नहीं बनूंगा। जम्बूकुमार ने सोचा-मैंने अपनी भावना मां के सामने रख दी लेकिन काम बड़ा कठिन है। यह मनुष्य की मोहात्मक चेतना है कि वह स्वयं भी त्याग मार्ग की ओर जाना नहीं चाहती और जो जाना चाहता है। उसको रोकना चाहती है, भोग में अपना साथी बनाना चाहती है। यह एक स्वाभाविक प्रकृति है। मां ने कहा—'तुम दीक्षा की बात को छोड़ दो। हम जब संसार में न रहें तब तुम मुनि बन जाना।' हिवडां तो बैठो रहे घर मझे, आपणो वंश बधार । म्हें बूढा हुवां काल गयां पछे, लीजे संजम भार ।। খ जम्बूकुमार बोला- 'मां ! मैं तो छोटा हूं, कम जानता हूं। आप तो बड़े हैं, अनुभवी हैं। पर मैंने भी महावीर का एक वचन सुना है। मैं भी जानता हूं महावीर की वाणी को । मां! महावीर की वाणी तो यह है १२२ गाथा परम विजय की m
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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