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________________ उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति करके देव अपनी इन्द्रसभा में चला गया। इस वर्णन को सुनकर प्रत्येक श्रावक और श्रमण की बुद्धि मुनिराज की वैयावृत्य करने की सदैव रहनी चाहिए। श्रावक हो या श्रमण प्रासुक द्रव्य से ही मुनिराज की सेवा करते हैं । यथाशक्ति अपने धन-बल का उपयोग करके जो साधु जनों की, सहधर्मी की, साध्वियों की आपत्ति-विपत्ति का निवारण करता है, वह ही वास्तव में जैन शासन का आदर करने वाला और जिनधर्म का वत्सल है। साधु के लिए देह के स्वभाव को जानना आवश्यक है जो खलु णेव विजाणदि देहस्स रोग सहावसणिदाणं। सो साहू साहुस्स हि धम्म मरणे विणासेदि॥ ३॥ हे साधो! केवल चेतन ना तन का भी अवबोध रखो क्या तन में है रोग देह का क्या स्वभाव त्रय दोष लखो। यदि निदान तुम नहीं जानते देह रोग का ऋतु अनुसार तो साधू का मरण समाधि कैसे हो आराधन सार॥३॥ अन्वयार्थ : [जो] जो [ देहस्स] देह के [ रोग-सहाव-सणिदाणं] रोग, स्वभाव और उसके उपचार को [खलु] निश्चित ही [णेव] नहीं [विजाणदि] जानता है [ सो] वह [ साहू ] साधु [ साहुस्स] साधु के [धम्मं] धर्म को [ मरणे] मरण समय पर [ हि ] अवश्य [विणासेदि] नष्ट कर देता है। भावार्थ : जिस तरह आत्मा के स्वभाव को जानना आवश्यक है उसी तरह देह के स्वभाव को जानना भी आवश्यक है। किस क्षपक की देह का स्वभाव किस तरह का है? वात्त, पित्त, कफ में किसका विकार शरीर में शीघ्र होता है? किस ऋतु में किस प्रकार की सेवा शरीर के अनुकूल होगी? रोगी को कौन सा रोग है? और उसका निदान(इलाज) क्या है ? यह शरीर का ज्ञान भी साधु को होना चाहिए। ऐसा साधु ही मरण समय पर साधक की सल्लेखना करा सकता है। शरीर की प्रकृति, रोग आदि का ज्ञान न होने पर मरण समय में साधु को कष्ट अधिक हो सकता है। जिससे संक्लेश के साथ मरण करने से उसके रत्नत्रय की विराधना भी हो सकती है। वैयावृत्य अत्यन्त आवश्यक है आजीविदं हु साहू धम्मं पालेदि जदि वि पयत्तेण। वेज्जावच्चेण विणा मरणे अणाराहओ होदि॥ ४॥ इस पंचम कलि काल में देखो तन आश्रित हैं मन परिणाम मृत्यु समय पर इसीलिए ही तन सेवा चेतन की जान।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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