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________________ अन्वयार्थ : [ तम्हा ] इसलिए [ रयणत्तयेण ] रत्नत्रय से [ णिच्च पवित्ताणं ] हमेशा पवित्र [ तवोधणाणं ] तपोधनों की [ वेज्जावच्चं ] वैयावृत्य [ रयणत्तयदिव्वलाहत्थं ] रत्नत्रय का दिव्य लाभ पाने के लिए [ कज्जं ] करना चाहिए । भावार्थ : यह औदारिक शरीर एकान्त से अपवित्र ही नहीं है । रत्नत्रय से सहित साधु परमेष्ठी का यह शरीर पवित्र होता है । इस शरीर की सेवा से रत्नत्रय की सेवा का लाभ प्राप्त होता है । तपस्वियों के शरीर की सेवा रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए अवश्य करना चाहिए । हे आत्मन्! आचार्य कहते हैं कि जिनशासन में भक्ति रखने वाला ही वत्सल भाव से वैयावृत्य करता है। जिसने वैयावृत्य के लिए अपने धन और शरीर का उपयोग नहीं किया उसका धन और शरीर दोनों ही संसार परिभ्रमण के कारण हैं । वैयावृत्य तप में आनन्दित रहने वाले एक नन्दिषेण मुनिराज का कथानक बहुत ही प्रसिद्ध है। अत्यन्त दरिद्री, दुर्गन्धित शरीर को धारण करने वाला, दुर्भागी, सब ओर से तिरस्कृत एक व्यक्ति आत्मघात के लिए वैभार पर्वत पर पहुँचा। वहाँ से जब वह गिरने की इच्छा कर रहा था, तभी मुनिराज ने उसे रोका। उसे धर्म-अधर्म का फल बताकर इस पाप से रोका। अपनी आत्म निन्दा कर वह मुनिराज से दीक्षित हो गया । यही नन्दिषेण मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु के उपदेश से आशा - पाश को नष्ट करके सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को धारण करके वह अत्यन्त कठिन तप करने लगे । तप के प्रभाव से अनेक उत्तम ऋद्धियों से वह युक्त हो गए । ग्यारह अंग का ज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया । परीषहों और उपसर्ग को सहन करने में अत्यन्त पटु हो गए। जो-जो उपवास या व्रत दूसरों के लिए अत्यन्त कठोर थे वह उनके लिए सरल हो गए। वह जैसी वैयावृत्य के लिए विचार करते थे, वह औषध उनके हाथ में आ जाती थी। कई हजार वर्ष का तप-काल व्यतीत हो गया । एक दिन इन्द्र ने देवों की सभा में नन्दिषेण मुनि के वैयावृत्य तप की प्रशंसा की। प्रशंसा सुनकर एक देव परीक्षा के लिए आया । उस देव ने मुनि का भेष बनाया और नन्दिषेण मुनि के समक्ष आकर कहने लगा- मेरा शरीर व्याधि से पीड़ित है, मुझे कुछ औषध दीजिए। यह सुनकर नन्दिषेण मुनि ने कहा- ‘साधो ! आप कृपा कर यह बताएँ कि इस समय आपका मन कैसा भोजन करने के लिए हो रहा है ? आपकी रुचि किस भोजन में है ?' यह सुनकर मुनिभेषधारी देव ने कहा- मुझे पूर्व देश के धान का शुभ एवं सुगन्धित भात चाहिए। पंचाल देश के मूँग की स्वादिष्ट दाल चाहिए। पश्चिम देश की गायों का तपाया हुआ घी चाहिए और कलिंग देश की गायों का मधुर दूध और नाना प्रकार के व्यंजन यदि मिल जायें तो बहुत अच्छा हो क्योंकि मेरी रुचि ऐसा ही भोजन करने की है। नन्दिषेण मुनि ने कहा- आप निश्चिन्त होवें, आपके लिए यह भोजन मैं अभी लेकर आता हूँ। अलग-अलग दिशा की वस्तुओं की चाह होने पर भी मुनि के मन कुछ भी खेद उत्पन्न नहीं हुआ । गोचरी बेला में जाकर उक्त सब आहार लाकर उन्होंने शीघ्र ही उन कृत्रिम भेषधारी मुनि को दिया । आहार- पानी ग्रहण कर रात्रि में शरीर के कमल से सारा शरीर मलिन कर लिया । नन्दिषेण ने बिना ग्लानि के उसे अपने हाथों से धोया । फिर भी उनका उत्साह भंग नहीं हुआ था और वह बराबर वैयावृत्य करने में तत्पर थे। यह देखकर उस देव ने अपनी विक्रिया समेटकर
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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