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________________ पंचेन्द्रिय मनुष्य पर्याय की प्राप्ति हो जाने पर भी धर्म योग्य देश मिलना, व्रत - शील-दीक्षा धारण करने योग्य कुल मिलना और नीरोगता प्राप्त होना और अधिक-अधिक दुर्लभ है। इन सब दुर्लभताओं की प्राप्ति हो जाने पर भी यदि जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहा हुआ समीचीन धर्म न प्राप्त होवे तो मनुष्य जन्म प्राप्त होना वैसे ही व्यर्थ है जैसे दृष्टि के बिना मुख प्राप्त होना व्यर्थ है I पंचेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करके यदि इस पर्याय में मुक्ति का पुरुषार्थ नहीं किया तो पुनः एकेन्द्रिय पर्याय में जाना पड़ता है। त्रस पर्याय में जीव को अधिकतम रहने का काल दो हजार सागर पर्यन्त है । इसके बाद नियम से स्थावर पर्याय मिलती है। इसलिए जितना हो सके त्रस पंचेन्द्रिय पर्याय में विषय सेवन की तृष्णा छोड़कर आत्म उपलब्धि का विचार करना चाहिए । निगोद की अन्धकारमय अदृश्य पर्याय में से निकलना बहुत पुण्ययोग की बात है । ऐसा विचार करने से संसार से भीति होती है और धर्म में हर्ष बढ़ता है। नये-नये संवेग भाव की प्राप्ति होती है I और भी स्थावर पर्याय का चिन्तन करना चाहिए तसपज्जाए जीवो कधमायादीह दुक्खपरिभुत्तो । थावरगमचिंताए संवेगो तस्स होदि णवो ॥ ३॥ जन्म मरण परिवर्तन के ये दुःख जीव बहु भोगा दो इन्द्रिय आदिक भव पाके पंचेन्द्रिय संयोगा है । स्थावर जंगम जीवों के दुःखों का चिन्तन करना नित्य नये संवेग भाव का इसी तरह वर्धन करना ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ : [ दुक्खपरिभुत्तो ] दुःख को भोगता हुआ [ जीवो ] जीव [ तसपज्जाए ] त्रस - पर्याय में [ इह ] यहाँ [ कधं ] कैसे [ आयादि ] आता है [ थावर - गम - चिंताए ] स्थावर में गमन की चिंता से [ तस्स ] उसका [ संवेगो ] संवेग [ वो ] नया [ होदि ] होता है । भावार्थ : निगोद पर्याय एकेन्द्रिय साधारण वनस्पति है । इस पर्याय से निकलकर प्रत्येक वनस्पति वृक्ष आदि में जन्म होना भी अत्यन्त दुर्लभ है। इस पर्याय में एक जीव बहुत समय तक दस हजार वर्ष तक जीवित रह सकता है। इस अपेक्षा से यह पर्याय निगोद पर्याय से अच्छी है। यहाँ से निकलकर पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक में भी बहुत समय तक भ्रमण करता है । स्थावरों से निकलकर त्रस पर्याय प्राप्त करना अतीव 'दुष्कर है। मारीचि का जीव मिथ्यात्व और मान कषाय के कारण वृक्ष आदि में जन्म लेकर एकेन्द्रिय पर्याय में चिर काल तक भ्रमण किया। एक कोड़ा-कोड़ी सागर का दीर्घकाल भ्रमण करने के बाद इस जीव को मुक्ति प्राप्त हुई । इस तरह का चिन्तन करने से आत्मा में नया-नया संवेग भाव उत्पन्न होता है। पुनः मनुष्यगति, तिर्यंचगति का सामान्य दुःख दिखाते हैं
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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