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________________ जीवो अणाइ भूदो संसारे संसरदि सयं जादो। णिच्चणिगोदं चिंतइ संवेगो तस्स होदि णवो॥२॥ काल अनादि से यह आतम कर्म बन्ध से सहित रहा नहीं हुआ उत्पन्न किसी से इस भव वन में घूम रहा। नित्य निगोद वास ही सबका इस विधि जो चिंतन करता वह भव-वन के भ्रमण दुखों से डर संवेग भार भरता॥२॥ अन्वयार्थ :[सयं जादो] स्वयं उत्पन्न हआ[ जीवो] जीव[ संसारे] संसार में[ अणाइभदो] अनादि से रहता हआ [ संसरदि] संसरण कर रहा है। णिच्चणिगोदं जो नित्य निगोद का चिंतह] चिन्तन करता है। तस्स] उसका [संवेगो] संवेग [णवो] नवीन [ होदि] होता है। भावार्थ : इस जीव को किसी ने बनाया नहीं है, किसी ने जन्म नहीं दिया है। यह जीव संसार में अनादि काल से है और भ्रमण करता है। अनन्त काल इस जीव ने निगोद पर्याय में बिताया है। निगोद पर्याय से निकलकर त्रस पर्याय को प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। आचार्य पूज्यपाद देव सर्वाथसिद्धि में कहते हैं कि इस संसार में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ है। इस निगोद में जीव एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण करके दुःख उठाता है। नित्य निगोद से इस जीव का निकलना बहुत कठिन है। जिस किसी तरह त्रस पर्याय हुई तो भी उसमें पंचेन्द्रिय पर्याय पाना और अधिक दुर्लभ है। त्रस पर्याय में विकलेन्द्रिय(दो इन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीवों) की बहुलता होती है। आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञता गुण प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है उसी प्रकार त्रसों में पंचेन्द्रिय पर्याय प्राप्त होना दुर्लभ है। पंचेन्द्रिय पर्याय में भी पशु, पक्षी और सरीसृप तिर्यञ्चों की बहुलता होती है। इन सब पर्यायों के बीच से मनुष्य पर्याय मिलना तो बहुत दुर्लभ है। जैसे किसी चौराहे पर कोई रत्नराशि प्राप्त कर लेना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय एक बार मिलने के बाद पुनः मनुष्य पर्याय मिलना तो बहुत दुर्लभ है। जैसे जले हुए वृक्ष के पुद्गल परमाणुओं का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूप से उत्पन्न होना कठिन होता है वैसे ही एक बार मनुष्य जन्म खो देने पर दोबारा प्राप्त करना दर्लभ होता है। सिद्धान्त ग्रन्थ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुष्य गति में कोई जीव मिथ्यात्व के साथ भी अधिकतम रहे तो ४७ पूर्व कोटि से अधिक ३ पल्य प्रमाण काल तक रह सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के अधिक से अधिक ४८ भव ही मिलते हैं। इसमें भी सोलह भव नपुंसक वेद के साथ, सोलह भव स्त्री वेद के साथ और सोलह भव पुरुष वेद के साथ अधिकाधिक होते हैं । यद्यपि यह भव लगातार मनुष्य गति में रहने की अपेक्षा से है। च में अन्य गति में जाने पर भी पंचेन्द्रिय पर्याय में अधिक से अधिक रहने का काल ९६ पर्व कोटि से अधिक एक हजार सागर काल कहा है। इसके बाद नियम से पंचेन्द्रिय पर्याय छुट जाती है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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