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________________ गब्भे वासे जम्मं संजोगविओग-दुक्खसंतत्तो। रोगजरां जो चिंतइ संवेगो तस्स होदि णवो॥४॥ जो मनुष्य तिर्यञ्च गति के गर्भ वास में वास किए जन्म प्राप्त कर संयोगों से अरु वियोग से व्यथित हुए। बड़े हुए तो रोग-बुढ़ापा पीड़ाओं ने घेर लिया इसी तरह के चिन्तन से मन संवेगित सन्नीर पिया॥४॥ अन्वयार्थ : [गब्भे वासे ] गर्भ वास में [ जम्मं] जन्म होना [ संजोग-विओग-दुक्खसंतत्तो ] संयोग, वियोग के दुःख से दुःखी होता हुआ [ जो] जो [ रोगजरां] रोग, बुढ़ापे का [ चिंतइ ] चिन्तन करता है [ तस्स] उसका [संवेगो] संवेग [णवो होदि] नया होता है। भावार्थ : विचार करो कि गर्भ में कितने कष्ट से तुम रहे हो। बहुत ही संकुचित स्थान पर तुमने माँ के गर्भ में नौ मास व्यतीत किए। बिना हिले-डुले एक स्थान गर्भ में नीचे मुख करके लटके हुए कितनी पीड़ा सहन की है। यदि इस पीड़ा को याद करो तो वर्तमान की पीड़ा कुछ भी न दिखे। बड़े कष्ट के साथ तुम्हारा योनि स्थान से जन्म हुआ। हे आत्मन् ! जन्म लेने के बाद भी रोते-रोते अनेक कष्टों के साथ तुम बड़े हुए। जन्म लेने के कई महीने तक तुम्हें मल-मूत्र का विवेक नहीं रहा। जब बड़े हो गए तो रोग होने लगे। कभी-कभी तो पूरा जीवन रोगों के साथ बिताया। फिर बुढापा आने लगा। घर-परिवार में आदर कम होने लगा। शरीर की शिथिलता होने लगी। बीमारियां और बढ़ने लगीं। इस प्रकार प्रत्येक जन्म में यही जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापे के दुःख लगे रहते हैं। इन दुःखों का जो चिन्तन करता है उसे नया-नया संवेग होता है। दुःख सबके पास हैं जदि देवाणं दुक्खं मणुजाणं चावि चक्कवट्टीणं। किह लोए पुण सोक्खं संवेगो तस्स होदि णवो॥५॥ महापुण्य के महाफलों से महा-महा वैभवशाली देव-इन्द्र, चक्री राजा का दुख से होता मन खाली॥ ऐसे महापुण्यवन्तों को, जग में- यदि दुख होता है तो सुख किसको होगा सोचो क्यों विषयों में खोता है॥५॥ अन्वयार्थ : [ जदि] यदि [ देवाणं ] देवों को [ दुक्खं] दुःख होता है [ चावि] तथा [ चक्कवट्टीणं मणुजाणं] चक्रवर्ती मनुष्यों को भी दुःख है [ पुण] तो फिर [ लोए ] लोक में [ सोक्खं ] सुख [किह ] कैसे होवे [ तस्स ] ऐसा चिन्तन करने वाले को [ संवेगो ] संवेग [णवो] नया [ होदि ] होता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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