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________________ इसी तरह आत्मा और कर्म के संयोग से यह शरीर आदि दशायें दिखती हैं। निश्चय नय आत्मा को आत्मा और कर्म को कर्म, शरीर को पुद्गलात्मक शरीर ही कहता है। व्यवहार नय शरीर और आत्मा की संयोग दशा का ज्ञान कराता है और उसी को कहता है। मान लो आपसे पूछा कि आत्मा संसारी है, या मुक्त? जो मात्र निश्चय नय से आत्मा का ज्ञान रखता है, वह कहता है आत्मा मुक्त है। जो मात्र व्यवहार नय से आत्मा को जानता है, वह कहता है आत्मा संसारी है। किन्तु जो व्यवहार और निश्चय दोनों को जानता है वह कहता है कि आत्मा व्यवहार नय से संसारी है और निश्चय नय से मुक्त है। इस प्रकार दोनों नयों का अपेक्षा भेद से कथन करने वाला अनेकान्त स्वरूप को जानने वाला है। जहाँ वस्तु के अनेक अन्त (अर्थात् पहलू या धर्म, गुण) को जाना जाता है वह अन ____ कुछ अन्धे लोग एक बार एक हाथी को पकड़ लिए। जिसने हाथी की पूंछ पकड़ी वह कहता है हाथी रस्सी जैसा मोटा होता है। जिसने हाथी की सुंड पकडली वह कहता है नहीं रे! हाथी तो मूसल जैसा लम्बा होता है। जिसने हाथी के पैर पकड़ लिए वह कहता है तुम लोग कुछ नहीं जानते, हाथी तो किसी खम्भे जैसा भारी होता है, जिसने हाथी का दाँत पकडा, वह कहता है अरे! हाथी तो लोहे की छड जैसा चिकना-लम्बा होता है। इस तरह सब लड़ने लगे तो एक आँख वाले व्यक्ति ने कहा आपका कहना कथंचित्(किसी अपेक्षा से) सत्य है सर्वथा(एकान्त रूप से) सत्य नहीं है। बताओ ज्ञानी आत्माओ! आत्मा खाता है, पीता है कि नहीं? निश्चय एकान्तवादी कहेगा- 'आत्मा खाता नहीं, आत्मा पीता नहीं, आत्मा तो त्रैकालिक शुद्ध छे।' व्यवहार नय को ही मात्र जानने वाला होगा वह कहेगा आत्मा ही खाती है, आत्मा ही पीती है। व्यवहारनयी निश्चय वाले को तर्क देता है कि यह आत्मा खाती नहीं तो खाना-पीना छोड़ दे, त्याग दे। क्यों अनुकूल नहीं मिलने पर क्रोध करता है? निश्चयनयी व्यवहार वाले को तर्क देता है कि यदि शरीर खाता है तो मरने के बाद शरीर को खिला तो जानें। दोनों अज्ञानता से लड़ते रहते हैं। जो अनेकान्त दर्शन को जानने वाला है वह कहता है भैया ! विवाद मत करो। आप दोनों का कथन अपनी अपनी-अपेक्षा से सत्य है, सर्वथा नहीं। देखो! आत्मा निश्चयनय की अपेक्षा से खाती नहीं, पीती नहीं बिल्कुल सही। इसी प्रकार आत्मा व्यवहार नय की अपेक्षा से खाती है, पीती है बिल्कुल सही। यदि आप नयों का माध्यम बनाकर दोनों पहलू को स्वीकार करें तो आप जैन दर्शन के ज्ञाता कहलाएँगे, नहीं तो दोनों ही मिथ्याज्ञानी हैं। नय ज्ञान विवाद को सुलझा देता है। यदि निश्चयनय से आत्मा खाती होती तो अभी तक बहुत मोटी बन गई होती। उसके असंख्यात प्रदेश बढ़ गये होते या उन प्रदेशों में स्थूलता आ गयी होती। किन्तु अनादि काल से तीन लोक का सारा अनाज खाकर भी आत्मा वैसी ही है। इसलिए निश्चय नय से आत्मा का यह ज्ञान सत्य है। यदि व्यवहार नय से आत्मा खाती नहीं है तो फिर कौन खाता है? कौन सन्तुष्ट होता है। शरीर तो जड़ है
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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