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________________ उसे तो कोई संवेदना है नहीं, उसमें क्रिया है नहीं तो फिर खाने वाला कौन? और अच्छा-बुरा कहकर हर्ष-विषाद करने वाला कौन? इससे स्पष्ट है कि हम जब दोनों नयों को यथार्थ मानेंगे तभी पदार्थ का सही ज्ञान होगा। इसी तरह आत्मा कषायी है या कषाय रहित है, आत्मा बन्धनबद्ध है या मुक्त है? आत्मा कर्माधीन है या कर्मरहित है? आत्मा पुरुषार्थ अधीन है या भाग्याधीन है? इत्यादि अनेक प्रश्न अनेकान्त धर्म के माध्यम से नय ज्ञान का सहारा लेकर अपनी बुद्धि में स्वीकारोगे तभी मान कषाय का अभाव होगा। विनय सम्पन्नता आएगी और सम्यग्ज्ञान की ओर आत्मा बढ़ेगा। यह विनय मुक्तिपथ पर ले जाएगी और तीर्थंकर जैसा महान नेता बनाने में समर्थ होगी। यह विनय सहज है, यह दिखाते हैं जेंसि वि य रयणत्तं तेसिं णिच्चं य भावणाधम्मे। जे णिरवेक्खा लोए तेसिंचरणेसुलग्गदे दिट्ठी॥२॥ जो रत्नत्रय धारण करके नित उसका पालन करते वही धर्म है जिसको धरके धार्मिक सब जन हैं कहते। जग में रहकर भी जो जग से नहीं अपेक्षा कुछ रखते उनके चरण कमल में दृष्टि लगी सहज वो मद हरते ॥२॥ अन्वयार्थ : [जेसिं वि य] जिनके पास [ रयणत्तं] रत्नत्रय है [ तेसिं] उनकी [ णिच्चं य] नित्य ही [धम्मे ] धर्म में [भावणा] भावना रहती है। [ जो] और जो [ लोए] लोक में [णिरवेक्खा ] निरपेक्ष हैं [ तेसिं] उनके [चरणेसु] चरणों में [ दिट्ठी ] दृष्टि [ लग्गदे] लग जाती है। भावार्थ : जिसके पास रत्नत्रय है, वह मुनिराज धर्म में ही भावना रखते हैं। क्योंकि रत्नत्रय को ही धर्म कहा है। जो धार्मिक है, उसकी विनय धर्म को चाहने वाला करता ही है। यदि वह धार्मिक लोक में निरपेक्ष है, अर्थात् लोकैषणा से दूर है तो उसके चरणों में दृष्टि अपने आप उस सम्यग्दृष्टि की लग ही जाती है। यह आत्मा का सहज गुण बन जाता है। सम्यग्दृष्टि का यह गुण बनावटी नहीं है और न वह किसी की चापलूसी करता है। वह उसी की विनय करता है जिसके पास रत्नत्रय का धारण, पालन देखा जाता है। वह किसी चमत्कार और प्रलोभन के बिना विनय में प्रवृत्त होता है। वि + नय =विनय, यानि विशेष रूप से ले जाने वाला। जो मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ाने वाला गुण है और जो एक नेता की महानता का द्योतक है, वह गुण विनय ही है। विनय सम्पन्नता महान गुण है। आचार्य श्री वीरसेन जी महाराज श्रीधवल की टीका करते हए कहते हैं किविनय सम्पन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। वह इस प्रकार से है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय और चारित्र विनय के भेद से विनय के तीन प्रकार हैं। उनमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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