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________________ नम्रता के प्रथम अर्थ की ओर ही ले जाता है। और हम यूँ कहें कि वस्तुतः सच्ची विनय नयज्ञान से ही आती है, तो बहुत उचित होगा। नयों के परिज्ञान से आत्मा का व्यवहार या निश्चय किसी भी नय के प्रति हठाग्रह नहीं रह जाता है तब आत्मा मोक्षमार्ग सम्बन्धी विनय को सही ढंग से धारण करता है। विनय भी दो प्रकार की है- व्यवहार विनय और निश्चय विनय। साधु परमेष्ठी आदि गुणी जनों को विनय पूर्वक नमस्कार करना, उनके आने पर उठखड़े होना, उनके सामने नम्रता से बात करना, उनके सामने हँसी-मजाक नहीं करना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनको उचित आसन प्रदान करना इत्यादि व्यवहार विनय है। उन परमेष्ठी जन के आत्मीय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि गुणों का ध्यान करना और अपनी आत्मा को इन्हीं गुणों से वासित करना निश्चय विनय है। अन्तरङ्ग आत्मा में जब मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों का जब अभाव हो जाता है तो आत्मा अन्तरङ्ग निश्चय विनय को धारण करता है। अन्तरङ्ग में आत्मगुणों की विनय रहने पर जब बाह्य में उन गुणों को धारण करने वाला व्यक्तित्व दिखता है तो आत्मा उनके प्रति भी सहज नम्रीभूत हो जाता है, यही व्यवहार विनय है। जिन आत्माओं में अनन्तानुबन्धी मान का उदय तीव्रतम रहता है वह व्यवहार विनय नहीं करते हैं। सामान्यतः देखा जाता है कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी मान आदि का उदय रहने पर भी लोगों में व्यवहार विनय होती है। यह व्यवहार विनय उनके अन्दर की मान कषाय की मन्दता से आती है और पुनः उस मान कषाय को मन्द करने में कारण होती है। व्यवहार विनय में प्रवृत्त हुआ जीव अपनी मान कषाय को मन्द करते-करते एक दिन अनन्तानुबन्धी मान का भी सर्वथा अभाव कर लेता है। जिसे निश्चय एकान्त या व्यवहार एकान्त का आग्रह है वह विनय सम्पन्न नहीं है। व्यवहार की उपयोगिता को भूमिका अनुसार स्वीकार करके जो निश्चय की भूमिका में आरोहण करता है वह निश्चय-व्यवहार नय का सही जानकार होता है। ऐसा व्यक्ति ही सही मायने में विनयशील है। इसलिए नयों का सम्यग्ज्ञान हमें वास्तव में विनय सम्पन्न बनाता है, यह सिद्ध होता है। नय का अर्थ होता है-ले जाना। जो हमें वस्तु या पदार्थ के सही ज्ञान की ओर ले चले वह ज्ञान या अभिप्राय नय कहलाता है। नय हमें किसी अपेक्षा से वस्तु के एक पहलू (धर्म) का ज्ञान कराता है। व्यवहार नय हमें दो पदार्थों के मिले-जुले रूप का ज्ञान कराने में काम आता है तो निश्चय नय बिना मिले-जुले शुद्ध पदार्थ का ज्ञान कराने के काम आता है। जैसे- हल्दी और चूना दो पदार्थ हैं। एक का रंग पीला है और दूसरे का रंग सफेद । जब इन दोनों का मिला रूप लाल रंग हमारे सामने आता है तो व्यवहार नय कहता है कि यह लाल रंग है। निश्चय नय कहता है कि यह पीले और सफेद रंग हैं। निश्चय नय कहता है पीला गुण पीला ही रहेगा वह कभी लाल नहीं हो सकता है और सफेद रंग भी सफेद ही रहेगा वह कभी भी लाल नहीं हो सकता है। व्यवहार नय कहता है भैया देखो! यह अब लाल रंग है। दोनों नयों का कथन अपेक्षा भेद से सत्य है। अज्ञानी एक बात को मानकर लड़ता रहता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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