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________________ २. विणय भावणा जो सो सम्मादिट्ठी विणओ भणिदो हि लक्खणो पढमो। दसण-णाण-चरित्तं रोचेदि जदो मोक्खमग्गम्मि ॥१॥ मोक्ष मार्ग का नेता वह ही, बनता जिसमें विनय रही सम्यग्दृष्टि जन का लक्षण सबसे पहले विनय कही। दर्शन-ज्ञान-चरित्र मयी जो शिव पथ में रुचि रखता हो शिवपथगामी जनसेकैसेभलाअरुचिरखसकतावो?॥१॥ अन्वयार्थ : [जो सम्मादिट्ठी ] जो सम्यग्दृष्टि है उसका [ पढमो ] प्रथम [ लक्खणो ] लक्षण [विणयो] विनय [हि ] ही [भणिदो] कहा है [ जदो] चूंकि [ सो] वह [ मोक्खमग्गम्मि] मोक्षमार्ग में [दंसण-णाणचरित्तं ] दर्शन, ज्ञान, चारित्र की [ रोचेदि] रुचि रखता है। भावार्थ : तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध की दूसरी भावना विनय सम्पन्नता है। सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में भावना आवश्यक है। उसके होने पर ही अन्य भावनाएं कार्यकारी हैं, अन्यथा नहीं। इसलिए उस सम्यग्दृष्टि का प्रथम लक्षण विनय कहा गया है। सम्यग्दृष्टि जीव मोक्षमार्ग पे चलता है तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र की रुचि, श्रद्धा रखता है। जिसके अन्दर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के प्रति आदर होगा, वह रत्नत्रय धारी की विनय अवश्य करेगा। यह एक सामान्य नियम है जो जहाँ पर रुचि रखता है, वहीं पर आदर भी रखता है । गुण-गुणी में कथंचित् अभिन्नता, एकरूपता होती है। गुणों की विनय गुणी की विनय करने से ही होगी। गुण बिना गुणी के भला कहाँ रहेंगे। रत्नत्रय आत्मा का धर्म है। यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता है। जैसा कि द्रव्य-संग्रह में कहा है ‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदव्वयम्मि।' इसलिए रत्नत्रय सहित आत्मा की विनय करना मोक्षपथ के नेता के लिए प्रथम आवश्यक गुण है। जो जितना झुकता है वह भीतर से उतना ही महान होता है। आत्मा जाग गई है, इस बात की पहिचान विनय से, झुकने से ही होती है। अकड़ तो मुर्दा की पहिचान है। जिससे जो गुण प्राप्त करना है तो पहले उसके चरणों में झुकना ही होगा। इसीलिए मूलाचार में 'विनय मोक्ष का द्वार है।' ऐसा कहा है। हे मोक्षमार्गिन् ! विनय को मोक्षमार्ग में अत्यन्त आवश्यक गुण कहा है। विनय का एक अर्थ नम्रता और समर्पण है तो दूसरा अर्थ वि- विशिष्ट रीति से नय-नयों को जानना। जो व्यक्ति जिनशासन में बताए हुए नयों को सही ढंग से जानता है वह विनयवान है। यह निर्ग्रन्थ मार्ग विनय गुण की मूल-जड़ को धारण करता है। प्रतिक्रमण पाठ में 'विणय मूलस्स' कहा है। प्रथम अर्थ को सभी जानते हैं किन्तु दूसरा अर्थ कुछ नया सा लग रहा होगा। यह नया अर्थ भी हमें विनय
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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