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________________ मार्ग प्रभावना का और भी कारण बताते हैं रइऊण णवं सत्थं जिण्णं रक्खेदि पुण पयासेदि। सुत्तत्थमणुसरंतो मग्गपहावणापरो सो हि॥ ४॥ जिनवाणी के पोषण हेतू नव श्रुत रचना श्रुत अनुरूप तथा जीर्ण श्रुत की रक्षा भी नव प्रकाश का भी प्रारूप। किन्तु सूत्र, पद, अर्थ, भाव को नहीं बदलता एक प्रवाह धर्म बढ़ाता प्रभावना भी उसकी जग में होती वाह॥४॥ अन्वयार्थ : [णवं सत्थं ] नये शास्त्रों की [ रइऊण ] रचना करके [ पुण] पुनः[जिण्णं] जीर्ण की [ रक्खेदि] रक्षा करता है और [ पयासेदि] प्रकाशित करता है [ सुत्तत्थं अणुसरंतो ] सूत्र, अर्थ का अनुसरण करता हुआ [सो] वह [हि] निश्चय से [ मग्गपहावणापरो] मार्ग प्रभावना में तत्पर है। भावार्थ : मार्ग की प्रभावना जिनवाणी की रक्षा से होती है। जिनवाणी की रक्षा जीर्ण का उद्धार करने से होती है। जो जीर्ण-जर्जर शास्त्रों का उद्धार करके उनका प्रकाशन कराके बहुत काल तक के लिए उनका संरक्षण करता है, वह अतिशयपुण्य का बन्ध करता है। पुराने शास्त्रों की रक्षा करने के साथ जो नवीन शास्त्रों की रचना करके साहित्य की समृद्धि करता है, वह जिनशासन का उपकारी सरस्वतीपुत्र है। नए शास्त्रों की रचना आगामी इतिहास के लिए नवीन प्रकाश स्तम्भ होती है। यह शास्त्रों की रचना सूत्रार्थ के अनुरूप ही हो। पूर्वाचार्यों के अभिप्राय को गुरु के निकट रहकर जिसने गुरु वचनों को हृदयंगम किया है, वह पुण्यवान जीव ही इस महनीय कार्य में अपना योगदान दे सकता है। जैन दर्शन का साहित्य आज इतना समृद्ध इसलिए है कि पूर्व के समय में प्राचीन आचार्यों, मुनियों, मनीषियों ने इसमें अपना बहुमूल्य समय लगाया है। वर्तमान में अभिनव रचनाओं, प्रामाणिक कृतियों और मौलिक कार्यों की बहुत अधिक कमी है। इसके दूरगामी परिणाम प्रभावना में अवश्य कमी लाएँगे। साहित्य ही समाज की धरोहर होती है। साहित्य का आदर ज्ञानार्जन के बिना नहीं होता है। ज्ञानी, विद्वानों की कमी के कारण ही साहित्य की उपयोगिता में कमी आ रही है। काव्य रसिक, सिद्धान्तवेत्ता, अनेकान्तदर्शी, न्यायवित्, व्याकरणज्ञ, साहित्य समालोचक, अध्यात्ममर्मज्ञ जैसे व्यक्तित्व जब तक समाज में नहीं उभरेंगे तब तक धर्म प्रभावना का कार्य प्राणरहित प्राणी की तरह ढकोसला मात्र बना रहेगा। हे आत्मन् ! सुना जाता है कि सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डागम ग्रन्थ पर, अनेक पूज्य, विज्ञ आचार्यों ने टीका, व्याख्या लिखी थी। आज अपने समक्ष वह व्याख्यायें उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य श्री वीरसेन जी महाराज ने उन समस्त कृतियों से मिलान करके एक नवीन व्याख्या टीका श्रीधवला नाम से रची। इसी धवला टीका में कुछ प्राचीन पोथियों के नाम मिलते हैं। आचार्यों के भिन्न-भिन्न अभिमत उल्लिखित हैं। आचार्य वीरसेन महाराज ने प्राचीन की रक्षा करते हुए नवीन टीका की रचना कर आज जो हमें ज्ञान प्रकाश दिया है, उस उपकार की महत्ता का वर्णन किसी के वश की बात नहीं है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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