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________________ ऐसे ही अनेक आचार्यों के अनेक योगदानों की कृतज्ञता हमें रखनी चाहिए। वर्तमान के गृहस्थ विद्वानों ने जो पूर्वाचार्यों की संस्कृत-प्राकृत प्रधान कृतियों का हिन्दी भाषा में अनुवाद करके हमें दिया है, वह भी स्मरणीय कृत्य है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा का अक्षरशः अनुवाद न करके केवल भावार्थ मात्र दिया है। उनमें कुछ अनुवाद त्रुटिपूर्ण हैं । अनुवादक ने अपने एकान्त अभिप्रायों को भी उसमें जोड़ा है। प्रवचनसार ग्रन्थ पर हेमराज पाण्डे का भाषानुवाद इस दिशा में एक उदाहरण है। यह अनुवाद भ्रमपूर्ण है। आज के समय का पाठक अपने मतलब के, समझने योग्य प्रवचन को पढ़ने का शौक रखता है। उसे गहराई से वस्तु स्थिति को समझने का मन नहीं होता है। जैनदर्शन का वास्तविक रूप से अध्ययन जिस व्यक्ति का हो जाता है उसे दुनिया अपने से भिन्न प्रतिभासित होने लगती है। उसे अन्य दर्शन की वास्तविकता का बोध स्वतः हो जाता है। दुनिया में शरण योग्य क्या है, अपने आप यह ज्ञान हो जाता है। हे ज्ञानाराधक! जैसे जीर्ण-शीर्ण जिन मन्दिरों का उद्धार कराने में अपार पुण्य का बन्ध होता है, उसी तरह प्राचीन जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों का उद्धरण कराने का पुण्य होता है। श्री इन्द्रनन्दि सूरि ने लिखा है कि जीर्णं जिनगृहं बिम्बं पुस्तकञ्च सुदर्शनम्। उद्धार्य स्थापनं पूर्व- पुण्यतो लभ्यमुच्यते॥४९॥ अर्थात्- जीर्ण जिनगृह, जीर्ण जिनबिम्ब, जीर्ण शास्त्र और दर्शनीय स्थानों का उद्धार करके स्थापना करना पूर्व में किए गए पुण्य से प्राप्त होता है। मार्ग प्रभावना के लिए और आवश्यक सामग्री कहते हैं संजमबंधणबद्धो जिणसासण-गुरुजणाणाणिबद्धो। बद्धो होइ णिबंधो मग्गपहावणा परो सो हि॥५॥ जिनशासन आज्ञा का बन्धन गुरु आज्ञा का भी बन्धन संयम पालन का भी बन्धन बन्धन माने भाग्य सघन। बन्धन ही निर्बन्ध मुक्ति का बीज रहा ज्यों तरु एरण्ड प्रभावना हो जैन धर्म की भाव यही है शुद्ध प्रचण्ड॥५॥ अन्वयार्थ : [संजमबंधणबद्धो] संयम के बंधन में बंधा हुआ और [जिण-सासण-गुरुजणाणाणिबद्धो] जिनशासन तथा गुरुजनों की आज्ञा से निबद्ध [बद्धो] बद्ध हुआ जीव भी [णिबंधो] बंध रहित है [ सो] वह [हि] निश्चय से [ मग्ग पहावणा परो] मार्ग की प्रभावना में तत्पर है। भावार्थ : जिनशासन से बंधे रहना मार्ग प्रभावना के लिए आवश्यक है। हे भव्य ! जिस मार्ग की प्रभावना में तत्पर
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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