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________________ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही भव्य जीवों का सही समुद्धार होता है। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् आध्यात्मिक, आचार्य ऐसे मुनिवरों की स्तुति करते हैं जिन्होंने दर्शन, ज्ञान के आलम्बन से भव्य जीवों को पार लगाया है। भावपाहुड़ में लिखा है धण्णा ते भयवंता दंसण णाणग्गपवरहत्थेहिं । विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं॥ १५७॥ अर्थात् जिन्होंने विषय रूप समुद्र में पड़े हुए भव्यजीवों को दर्शन, ज्ञान रूपी मुख्य हाथों से पार उतार दिया है, वह मुनिप्रधान भगवान् इन्द्रदिक से पूज्य ज्ञानी धन्य हैं। धन्य हैं वह वारिषेण महाराज जो अपने मित्र को जिनदीक्षा देकर अपने पास रखकर धर्मध्यान कराते रहे। जब उस मित्र को अपनी कानी स्त्री की याद में व्याकुल देखा तो उसे स्थितिकरण करने का प्रयोगात्मक मार्ग विचारा। मात्र उपदेशात्मक मार्ग से परिणति सुधरने का कई बार संयोग नहीं बनता है। किसी के लिए उपदेश से स्थिरता आ जाती है, तो कोई प्रयोगात्मक रहस्यमय तरीके से मार्ग पर स्थिर होता है। मुनि वारिषेण का नाम इसीलिए स्थितिकरण अंग में लिया जाता है कि उन्होंने कितनी धैर्य से एक आत्मा को जगत् की स्थिति का ज्ञान कराकर मोह से अलग किया। बिना बुलाए अपने घर में जाना और अपनी सुन्दर रानियों को बुलावा भेजना। उन्हें अपना कहकर भी उनसे विरक्त रहना और मित्र मुनि की आँखों से मोह का पट्टा हटाकर वापस आ जाना। कितनी बड़ी युक्ति और कितना बडा भेद विज्ञान है? जहाँ स्थितिकरण की भावना है, वहाँ मार्ग प्रभावना अवश्य है । महान् आचार्यों ने, महायोगियों ने यथासम्भव पुरुषार्थ करके मार्ग को सुदृढ़ और निष्कलंक बनाए रखने का प्राणप्रण से प्रयास किया है। एक आत्मा का कितना महत्त्व है जो मोक्षमार्ग पर आया है, वह अब इस मार्ग से डिगने न पाए, यही सच्चा स्थितिकरण और आत्मा की प्रभावना है। भाग्य के भरोसे छोड़ देना उसे रास्ते में लाकर बीच में छोड़ देना है। भटकते हुए उस राही को जिनमार्ग पर भटकना न पड़े, ऐसा पुरुषार्थ करना ही मार्ग के प्रति सच्चा लगाव है। अहो! वह जिनेन्द्र भक्त सेठ का धर्म और धार्मिक के प्रति गुणानुराग और उपगूहन गुण का उत्कृष्ट उदाहरण भी देखो। चोर क्षुल्लक को अपने मन्दिर में रख लेना। युक्तिपूर्वक उसके पापकृत्य को समझ लेना तथा जगत् में जिनधर्म की निन्दा न हो जाए ऐसा विवेकपूर्ण समाधान देकर धर्म को निन्दा से बचाना। धार्मिक की निन्दा धर्म की निन्दा है। वास्तव में जिनेन्द्र भगवान् का सच्चा भक्त जिनेन्द्र भक्त ही है जो चोर को भी चोर नहीं कहा क्योंकि उसका वेष क्षुल्लक का था। सम्यग्दृष्टि श्रमण हो या श्रावक हो, किसी के अज्ञान दशा में किए गए दुष्कृत्य का ढिंढोरा कभी नहीं पीटता। हे आत्मन् ! मुनियों या आचार्य संघ के विषय में पत्र-पत्रिका और टी.वी. पर निन्दा प्रसारण यदि तुम्हारे निमित्त से हो तो ध्यान रखना वह सच भी असत्य है। वह धर्म का बचाव नहीं, धर्म की हानि करना है। ऐसा करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कदापि नहीं हो सकता है। उपगूहन अंग का पालन करके धर्मप्रभावना का कार्य वही कर सकता है जो अपनी मान बढ़ाई, ख्याति-पूजा से ज्यादा जिनशासन की प्रभावना करने का अनुपम भाव रखता हो।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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