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________________ पुरुषार्थ करने से भाग्य भी बदलता है। पूर्वबद्ध कर्मों के अनुभाग में परिवर्तन होता है। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो कभी जिनेन्द्र भगवान् की पूजा से धनञ्जय सेठ अपने पुत्र का विष दूर नहीं कर पाता। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो मैना सुन्दरी अपने पति का कुष्ठ रोग जिनगंधोदक और आष्टाह्निक विधान की पूजा से दूर नहीं कर पाती। यदि ऐसा न होता तो पाण्डव कभी भी जलते हुए लाक्षागृह से बाहर नहीं निकल पाते। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो नेमिनाथ विवाह के लिए जाते हुए रास्ता बदलकर सहस्रार वन की ओर नहीं जाते। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो गोम्मटेश बाहुबली की प्रतिमा के अलौकिक दर्शन नहीं हो पाते। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो दुनिया से आयुर्वेद शास्त्र, मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष शास्त्र व्यर्थ होकर अभाव रूप हो जाते । यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो मरण समय साधक को निशल्य करने के लिए आचार्यों को प्रेरणा नहीं देनी पड़ती। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो कोई भी क्षपक(सल्लेखना लेने वाला) बारह वर्ष तक निर्यापकाचार्य की खोज नहीं करता। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो बारह व्रत की पाँच-पाँच भावना भाने का और अतिचार रहित व्रत पालने की प्रेरणा नहीं दी जाती। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो कोई भी दुराचार करने पर दण्डित नहीं किया जाता। यदि पुरुषार्थ से ऐसा न होता तो मन्दिर और जिन बिम्ब स्थापन की विधि-विधान के शास्त्र नहीं होते। इस पुरुषार्थ के पीछे भी भाग्य साथ रहता है और भाग्य के आगे चलकर पुरुषार्थ कार्य सिद्धिकारक होता है। मार्ग प्रभावना में तत्पर कौन है? यह पुनः कहते हैं मिच्छत्तं सोहित्ता विस्सासमुप्पाइयूण मग्गे य। उवगृहदि परदोसं मग्गपहावणा-परो सो हि॥३॥ पहले जिसने दूर किया है निज आतम का मिथ्या मल वही दूसरों में भर सकता मारग पर चलने का बल। दोष छिपाकर गुण प्रशंसकर सम्बल देकर बढ़ा रहा सन्मारग की प्रभावना का पाठ मौन रह पढ़ा रहा॥३॥ अन्वयार्थ : [मिच्छत्तं ] मिथ्यात्व का [ सोहित्ता] शोधन करके [ मग्गे ] मार्ग में[ विस्सासं ] विश्वास [ उप्पाइयूण] उत्पन्न कराके[य] जो[परदोसं] पर दोष को [उवगृहदि] छिपाता है[ सो] वह [हि] निश्चित ही [ मग्गपहावणपरो] मार्ग प्रभावना में तत्पर है। भावार्थ : मार्ग प्रभावक साधु साधक में उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य आदि गुण भी होते हैं। मिथ्यात्व और मूढ़ता के भावों से बचकर, जिनमार्ग में विश्वास उत्पन्न कराके अन्य को मार्ग में लगाना भी प्रभावना है। चेतना का यही सबसे बड़ा उपकार है कि उसे सन्मार्ग पर विश्वास हो गया। सन्मार्ग पर लगाकर यदि उस साधक में कोई दोष दिखता है तो उसे छिपाते हुए युक्ति से सन्मार्ग पर स्थिर करना बहुत बड़ी प्रभावना है। इसमें स्व-पर धर्म की भावना वृद्धिंगत होती है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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