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________________ जैसी मानसिकता रखते हैं, वे न केवल दूसरों का समय बर्बाद करते हैं, बल्कि उससे अपने आपको कष्ट में ही बनाये रखते हैं। सही मायने में भाव सहित प्रतिक्रमण करना, मन को विशुद्ध, तरो-ताजा बनाने का सही आध्यात्मिक तरीका है। पुरानी बातों को मन में रखे रहना और उस विद्वेष के जहर को समय पर उगलने की आदत अनेक रोगों को जन्म देती है। दिल के तमाम रोगों पर रोक लगाने के लिए यह प्रतिक्रमण ही श्रेष्ठ तरीका है। पंचम सूत्र कायोत्सर्ग यानी दूर है उपसर्ग- इसमें काय को छोड़कर मात्र श्वासोच्छास पर मन को टिकाना होता है। श्वास हमारा सूक्ष्म प्राण है। जिस समय श्वास के आवागमन पर ध्यान दिया जाता है उस समय हम प्राणमय हो जाते हैं। प्राण एक शक्ति है, जिससे हमारा जीवन संचालित होता है। सही मायने में जीवन का आनन्द में है। वे क्षण ही हमने जिये हैं जो हमने प्राणों के साथ जिये हैं। कायोत्सर्ग में प्राण-ऊर्जा का संचार एक अंग-उपांग के अन्तरङ्ग हिस्से तक होता है। मन एक नयी ऊर्जा से भर जाता है। योगासन में शवासन इसी कायोत्सर्ग का रूप है। महा प्राण शक्ति को दीर्घ आयाम के साथ सूक्ष्म अति सूक्ष्म बनाने वाला योगी इसी कायोत्सर्ग की प्रक्रिया से गुजरता है। यह प्राणायाम का एक अंग है। प्रत्येक श्रमण/मुनि के लिए दिन-रात में प्रत्येक आवश्यक क्रिया से पूर्व और पश्चात् कायोत्सर्ग नियामक है। प्रमाद वश कहें या स्थिरता के अभाव के कारण कहें या इस प्रक्रिया का स्थान बहुतायत में अब नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़ने मात्र से पूरा किया जाता है। इस क्रिया ने कायोत्सर्ग का महत्त्व कम कर दिया है। श्रमण या श्रावक यदि नौ बार णमोकार मन्त्र को श्वासोच्छास के आयाम के साथ पूर्ण करते हैं तभी वे सही कायोत्सर्ग का फल प्राप्त कर सकते हैं। आगम में इस कायोत्सर्ग के बत्तीस दोषों का वर्णन है। इस कायोत्सर्ग की कमी से ही आगे आने वाली आत्मिक प्रक्रिया- सामायिक निर्दोष नहीं हो पाती है। अतः समता, साम्य भाव की प्राप्ति के लिए कायोत्सर्ग करना प्रतिदिन मानसिक दोषों का अतिसार करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। छठवाँ सूत्र- सामायिक/अन्तः प्रज्ञा की परिचायक- हे भगवन् ! मेरे साथ अच्छा या बुरा जो भी होना था, वह अच्छा हुआ। वह नियति थी। वह कर्म का और मात्र हमारे ही किए का फल है। आगामी समय में भी उन कर्मों का फल भोगने को मैं तैयार हूँ। जाग्रत रहकर सुख और दुःख को हर्ष-विषाद रहित लेकर मुझे अनुभव करना है। देह को छोडकर मुझे किसी का संवेदन नहीं है। देह रोग सहित है तो भी मुझे पीडा से विचलित नहीं कर सकती है। प्रत्येक कर्म का फल भोगने की स्वीकृति ही सहज सामायिक है। आचार्य गुणभद्र जी कहते हैं कि- "रोग को दूर होने का कोई उपाय हो तो कर लो और कोई उपाय न बचा हो तो समता-अनुद्वेग ही अन्तिम उपाय है।" मैं इस उपाय को सहर्ष स्वीकार करता हूँ। नश्वर देह में रहकर भी अविनश्वर आत्मा का संवेदन, उसकी प्राप्ति की लगन और अनुभव का आत्मिक आनन्द इस सामायिक में है। इसी प्रक्रिया की पराकाष्ठा ध्यान और समाधि है। इस प्रकार यह छह आवश्यक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में श्रमण या श्रावक के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए नितान्त आवश्यक हैं। मात्र शारीरिक स्वास्थ्य ही सब कुछ नहीं होता है जिसकी प्राप्ति के लिए आज का युग हर सम्भव प्रयत्न कर रहा है। शरीर को संचालित करने वाले शाश्वत तत्त्व आत्मा की ओर केन्द्रित करने वाली यह षट् आवश्यकों की प्रक्रिया बहु आयामी है। इस प्रक्रिया से चलने वालों को शरीर और मन, वचन की स्वस्थता स्वतः प्राप्त होगी। अतः सभी चिन्ता, तनाव, दैहिक रोग और अस्थिरता के निवारण के लिए यह षटावश्यक मनोवैज्ञानिक विश्रूषण से बहुत महत्त्व के हैं। आत्म शान्ति प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य होना चाहिए। जो इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने से स्वयं में स्वयं के द्वारा ही प्राप्त होती है। आचार्य समन्तभद्र जी कहते हैं- "स्वदोषशान्त्या
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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