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________________ में एक-जैसा पन ही देख लेते हैं तो मन होता है कि, क्यों न हम एक ही महापुरुष का गुणगान अच्छे ढंग से करें, बस इसी मनोवृत्ति का नाम है वन्दना। एक ही तीर्थंकर महापुरुष की चेतना में अपने को देखना, उसी की स्तुति सरोवर में स्नान करना और अपने मन को शुद्ध बना लेना। अनेक द्वन्द्वों और उलझनों को जीते जागते भूल जाना। यही जीवन का वह क्षण है जब हम महसूस कर सकते हैं कि हाँ, हमने आज जीवन जिया है। बाकी का जीवन तो यूँ ही बिताया है। हर दिन हमें ऐसे ही जीना है ताकि चिन्ता की गठरी इकट्ठी होकर दिमाग में ट्यूमर का रूप न ले ले। डॉ. कैरेल ने एक लेख में कहा था- "प्रार्थना किसी के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का सबसे सशक्त रूप है। यह शक्ति उतनी ही वास्तविक है जितनी कि गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। एक डॉक्टर होने के नाते मैंने देखा कि, सभी चिकित्साओं के असफल हो जाने के बाद भी लोग प्रार्थना के शान्त प्रयास द्वारा अपने दुःख और रोग से मुक्त हो गये... प्रार्थना रेडियम की तरह चमकदार, अपने आप उत्पन्न होने वाली ऊर्जा है।... प्रार्थना में इन्सान समस्त ऊर्जा के अनन्त स्रोत के सम्पर्क में आकर अपनी सीमित ऊर्जा को बढ़ा सकता है। जब हम प्रार्थना करते हैं तो हम अपने आपको उस अविनाशी शक्ति के साथ जोड़ लेते हैं जो पूरे ब्रह्माण्ड को चलाती है।जब भी हम दिल से प्रार्थना करते हुए ईश्वर को सम्बोधित करते हैं हम अपनी आत्मा और शरीर दोनों को बेहतर बना लेते हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई आदमी या औरत एक पल के लिए भी प्रार्थना करे और उसे बेहतर परिणाम न मिलें।" तीसरा सूत्र- प्रत्याख्यान- यानी आत्म उत्थान का सोपान- प्रतिदिन अपने दुर्गुण का त्याग करना प्रत्याख्यान है। हम पापों के पिण्ड हैं अर्थात् हमारे अन्दर अनेक दुर्गुण हैं, हमने अनेक मूर्खतायें की हैं। मेरे पास अनेक छोड़ने योग्य, त्यागने योग्य भाव हैं उनके त्याग बिना हम कभी भी हीन भावों से, अपनी आलोचनाओं से अपनी अव्यवहारिक प्रवृत्तियों से निजात नहीं पा सकते हैं। अतः अपने दुर्गुणों का निष्पक्ष परीक्षण करें। आत्म निरीक्षण करें। प्रतिदिन एक बुरी आदत को नहीं करने का संकल्प लेकर हम इस प्रत्याख्यान से अपना मनोबल बढ़ा सकते हैं। यदि हम लिस्ट बनाकर एक बुरे भाव या आदत को नोट करके निरीक्षण करेंगे तो देखेंगे हमारा विकास हुआ है, लोगों ने मुझे पसन्द किया है और हम स्वयं में सन्तुष्ट हैं। अतः प्रत्याख्यान मनोवैज्ञानिक ढंग से आत्म उत्थान का सोपान है। चतुर्थ सूत्र- प्रतिक्रमण यानि वैर कम- मैंने काम-क्रोध के वश होकर जो अतिक्रमण किया। मैं अपने स्वरूप से बहुत दूर चला गया था। उस सब कायिक-वाचिक-मानसिक विकारों का प्रायश्चित्त करके अपने आप में आने का यह एक प्रक्रम है। आत्म आलोचना से व्यर्थ के अभिमान से उगी घास-फूस रूपी बुराइयों को हम उसी दिन काट देते हैं, उस फसल को हम बढ़ने नहीं देते हैं। मैं ही अपना मित्र हूँ और मैं ही अपना शत्रु हूँ। अपनी बदकिस्मती का कारण भी मैं हूँ और अपने समुन्नत भाग्य का भी। अतः अपने में रहने के लिए लौटना ही प्रतिक्रमण है। हमने विगत में जो छोटी-छोटी बातों पे बड़ी-बड़ी उलझने बना ली, मन में वैर-बुराई का जहर भर लिया वह सब भूल जाना ही सच्चा प्रतिक्रमण है। हमें सबको क्षमा करना है। क्षमा ही आत्मा का बल बढ़ाता है। सबसे बड़ी हार उसी की है जो दूसरे से वैर रखता है। जिसका किसी से वैर भाव नहीं वही जीवित जीवन जीता है। मनोवैज्ञानिकों ने शोध करके इस तथ्य को उजागर किया है कि न्यायालय में चलने वाले पारिवारिक, सामाजिक मामलों में अधिकतर झगड़े भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र के बीच छोटी-छोटी बातों से शुरू होते हैं। यदि उन छोटी-छोटी बातों को उसी समय भुला दिया जाय तो कोर्ट कचहरी तक झगड़ा कभी न पहुँचे। महान् वह है, जो बड़ी-बड़ी बातों को भी बहुत तुच्छ समझकर तनावमुक्त रहता है। जो लोग छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ बनाने
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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