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________________ विहितात्मशान्तिः” अर्थात् अपने दोषों के दूर होने से ही आत्म शान्ति प्राप्त होती है । आवश्यकों की पूर्णता और कैसे होती है? यह कहते हैं पडिदिवसं पडिरत्तं जदि कुव्वंतो वि सयलमावस्सं । पेक्खदि णवं विसोहिं आवस्सयपुण्णदा तस्स ॥ ७ ॥ प्रतिदिन प्रति रजनी में रहता श्रमण जागता खेद बिना आवश्यक की हानि उसे तो नहीं सहन निर्वेद बना । ढोता नहीं कर्म रज धोता नव विशुद्धि से मन भरपूर उसके ही षट् आवश्यक का योग बना है संयम पूर ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ : [ पडिदिवसं ] प्रतिदिन [ पडिरत्तं ] प्रतिरात्रि [ सयलं आवस्सं ] सकल आवश्यक को [ जदि ] यदि [ कुव्वंतो वि ] करता हुआ भी [ णवं विसोहिं ] नई विशुद्धि को [ पेक्खदि ] अनुभव करता है [ तस्स ] तो उसके [ आवस्सयपुण्णदा ] आवश्यकों की पूर्णता होती है । भावार्थ : रात्रि और दिवस सम्बन्धी आवश्यकों को करते हुए भी साधक की आत्मा में खेद - खिन्नता क्यों नहीं होती है? जानते हो आत्मन्! आत्मा में विशुद्धि जब बढ़ती है तो नया-नया आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है । विशुद्धि बढ़ने से प्रशम भाव की वृद्धि भी होती है । प्रशम भावों से मन की निराकुलता उत्पन्न होती है। देखो ! सुखपिपासु ! एक सुख इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न होता है। दूसरा सुख मन की कामनाओं की पूर्ति से होता है। ये दोनों तो सांसारिक लोगों के सुख हैं, जो इन्द्रिय और मन की अधीनता से होते हैं । मोक्षपथिक का सुख भी दो प्रकार का है। पहला तो प्रशम भावों से उत्पन्न सुख और दूसरा आत्मिक विशुद्धि का सुख। आवश्यकों का पालन करने से मुमुक्ष को दोनों ही प्रकार का सुख प्राप्त होता है । मन और आत्मा सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। मन में उद्देश्य सम्यक् होने पर शुद्धि उत्पन्न होती है तो आत्मा में कर्म की निर्जरा भी होती है। कर्म की निर्जरा होने से आत्मा में विशुद्ध भाव बढ़ते हैं । कहा भी है उवसम भाव-तवाणं जह - जह वड्ढी हवेइ साहुस्स । तह-तह णिज्जर वड्ढी धम्मे सुक्के विसेसेण ॥ अर्थात् उपशम भाव रूपी तप की जैसे-जैसे वृद्धि होती है साधु की उसी प्रकार निर्जरा में वृद्धि होती है । धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में विशेष रूप से निर्जरा होती है 1 अहो! पंचम काल में भी धर्मध्यान से आत्म विशुद्धि बढ़ती है। पंचम काल में भी निर्जरा होती है। पंचम काल में भी आत्म चिन्तन होता है। देखा जाय तो उपशम भाव ही सबसे बड़ा तप है । तप भी उपशम भाव की वृद्धि
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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