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________________ यह प्रवचन अनादि और सादि दोनों प्रकार का है, यह कहते हैं बीयतरुव्व कमेण य अणादि सादियं सिया जिणुत्तं खु। जेणुत्तिण्णा णंता तं पवयणं सया पणमामि॥३॥ वृक्ष बीज से, बीज वृक्ष से होता आया सदा सदा यह अनादि की संतति भी है और सादि भी यदा कदा। जन्म-मरण की परम्परा को जिससे भविजन नष्ट करें वह उपकारी जिनप्रवचन हैं सदा उसी के नमन करें॥३॥ अन्वयार्थ : [जिणुत्तं ] जिनेन्द्र भगवान् का कहा हुआ प्रवचन [बीयतरुव्व कमेण ] बीज-वृक्ष के क्रम से [सिया] कथंचित् [अणादि सादियं य] अनादि और सादि [ख] निश्चित ही है [जेण] जिसके द्वारा [णंता] अनन्त संसार को [ उत्तिण्णा ] उत्तीर्ण कर लिया जाता है [तं] उस [पवयणं] प्रवचन को [सया] सदा [पणमामि ] प्रणाम करता हूँ। भावार्थ : हे आत्मन् ! अरिहंत प्रवचन का प्रवाह अनादि अनंत है। इस प्रवाह का कोई भी कर्ता नहीं है। जो इसी प्रवाह में अपनी आत्म शुद्धि करता है वही इस प्रवाह को और आगे बढ़ाने में सहायक होता है। तीर्थंकर भगवन्तों ने इस प्रवाह को आगे बढ़ाया है। उन तीर्थंकर की अपेक्षा इस धर्म तीर्थ का प्रवर्तन और आगे बढ़ता है जिससे यह सादि है। यह प्रवाह सतत बह रहा है जिससे अनादि है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा चलती रहती है वैसे ही अनादि संतति की अपेक्षा अनादि और बीज की अपेक्षा सादि है। यह सनातन धर्म की परम्परा हे ज्ञानपिपासो! यहाँ सब आत्माओं का प्रवाह ऐसा ही चल रहा है। पर्याय की अपेक्षा नया है, सादि है। द्रव्य की अपेक्षा अनादिपन है। विचार करो कि, हम नये हैं या पुराने हैं। इस पर्याय की अपेक्षा हम नये हैं लेकिन आत्मा अनादि से है। कोई भी परिणमन इस संसार में एकान्त रूप से न नित्य है और न अनित्य है। पर्याय अनित्य होती है। पर्याय उत्पन्न होकर नष्ट होती है किन्तु द्रव्य नित्य है। द्रव्य शाश्वत रहता है। द्रव्य की दृष्टि से द्रव्यार्थिक नय का प्रयोग किया जाता है और पर्याय की दृष्टि से पर्यायार्थिक नय का प्रयोग होता है। यह नय ज्ञान कोई अलग से बना हुआ सिद्धान्त नहीं है किन्तु वस्तु को समझने के लिए एक व्यवस्था है। इस अनेकान्त धर्म की लहरों से जिन्होंने अपने अनन्त संसार का अन्त किया है, वह प्रवचन धन्य हैं और वह आत्माएँ भी धन्य हैं जो इस संसार सागर से पार हो गई हैं। धनि धन्य हैं जे जीव नर भवि पाय यह कारज किया तिनही अनादि भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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