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________________ इन सात तत्त्वों में पुण्य और पाप का विशेष वर्णन करने पर नौ पदार्थ होते हैं। आस्रव तत्त्व में ही पुण्य और पाप अन्तर्भूत है फिर भी विशेष व्याख्यान से विशेष ज्ञान होता है और स्वरूप निर्धारण होता है। इस तरह सप्त तत्त्व और नौ पदार्थों का स्वरूप जिस प्रवचन में कहा है उसे मैं नमस्कार करता हूँ। इन द्रव्यों और तत्त्वों के समझने से लोक, अलोक स्पष्ट समझ आने लगता है। भगवान् सर्वज्ञ के प्रवचन में ही लोक, अलोक का स्वरूप व्यवस्थित ढंग से बताया गया है। ऐसे प्रवचन को मैं हृदय में धारण करता हूँ। श्रीधवल ग्रन्थ में इस प्रवचन भक्ति के विषय में लिखा है कि-सिद्धान्त अर्थात् बारह अंगों को प्रवचन कहते हैं। वे स्वयं प्रकृष्ट हैं। अथवा प्रकृष्ट जो सर्वज्ञ उनके वचन प्रवचन हैं। ऐसी व्युत्पत्ति है। उस प्रवचन में कहे हुए अर्थ का अनुष्ठान करना, यह प्रवचन में भक्ति कही जाती है। इसके बिना अन्य प्रकार से प्रवचन में भक्ति सम्भव नहीं है क्योंकि असम्पूर्ण में सम्पूर्ण व्यवहार का विरोध है। तात्पर्य यह है कि प्रवचन में कहे ढंग से आचरण करना ही प्रवचन भक्ति है। तभी सम्पूर्णता आती है। अनुष्ठान किए बिना प्रवचनभक्ति अधूरी है। इस प्रवचनभक्ति से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। यह प्रवचन सभी के लिए समान है, यह कहते हैं जेण विणा ण हि सिज्झदि तित्थयरो चरमदेहगोणाणी। सव्वाण समं फुरइ तं पवयणं सया पणमामि॥२॥ जिन प्रवचन के बिना कभी भी ज्ञान पा सके तीर्थंकर चरम शरीरी ज्ञानी जन भी जिस बिन नहीं लहें शिववर। उच्च नीच का भाव छोड़कर सबके लिए समान रहे उन प्रवचन कोमन मेंरखकरमनही मनहम विलसरहे॥२॥ अन्वयार्थ : [जेण विणा] जिसके बिना [तित्थयरो] तीर्थंकर [चरमदेहगो] चरमशरीरी [णाणी] ज्ञानी [ण हि सिज्झदि] सिद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं [ सव्वाण] सभी को [ समं] समान [ फुरइ ] स्फुरित होता है [तं] उस [ पवयणं] प्रवचन को [सया] सदा [पणमामि] प्रणाम करता हूँ। भावार्थ : हे भव्यात्मन् ! जरा देखो तो इस प्रवचन की महिमा कितनी है। जो चरमशरीरी हैं, तीर्थंकर हैं, ऐसे पुण्यवान् पुरुष भी इसी प्रवचन का आश्रय लेते हैं। भगवान् अरिहन्त के प्रवचन में एक समानता है। सभी तीर्थंकर जो आचरण करते हैं, वह इसी प्रवचन के अनुसार करते हैं। महापुरुष होकर भी वह अन्यथा प्रवत्ति नहीं करते हैं. सलिए इन प्रवचनों की महिमा तीर्थंकर से भी बढ़कर है। इन प्रवचनों का पालन सभी को समान रूप से करना होता है, इसलिए आगम पक्षपात से रहित हैं। ऐसे प्रवचन को सदा प्रणाम करता हूँ।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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