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________________ छहढाला की ये पंक्तियां ऐसी आत्माओं का ही यशोगान कर रही हैं । संसार घात के लिए निमित्तों का कथन करते हैं पवयणणाणं करणं तब्भत्तिलोगपुण्णसमुग्धादं । भवघादत्थं वृत्तं तं पवयणं सया पणमामि ॥ ४ ॥ भवनाशन के साधक कारण चार कहे जिन आगम में द्वादशांग का ज्ञान प्रथम है दूजा भक्ति जिनागम में । तथा तीसरा करण भाव ही कारण तीजा कहलाता समुद्घात श्री जिन केवलि का चौथा कारण मन भाता ॥४॥ अन्वयार्थ : [ पवयणणाणं ] प्रवचन का ज्ञान [ करणं ] करण परिणाम [ तब्भत्तिलोगपुण्ण-समुग्धादं ] प्रवचन भक्ति और लोक पूरण समुद्घात [ भवघादत्थं ] भवघात के लिए [ वृत्तं ] कहा है [ तं ] उस [ पवयणं ] प्रवचन को [सया ] सदा [ पणमामि ] प्रणाम करता हूँ । भावार्थ : संसार की स्थिति का नाश करने वाले चार परिणाम सिद्धान्त में कहे हैं। आचार्य जयसेन म. जी ने समयसार की व्याख्या में कहा है कि १. द्वादशांग का अवगम २. उसी में तीव्र भक्ति ३. अनिवृत्तिकरण परिणाम ४. केवली समुद्घात ये चार परिणाम संसार की स्थिति को अतिअल्प करते हैं। इन्हीं चार कारणों को यहाँ कहा है हे भव्यात्मन्! द्वादशांग का ज्ञान संसार की स्थिति का घात करता है । द्वादशांग के ज्ञान से आत्मा पूज्य होता है । इतना पूज्य हो जाता है कि देव लोग भी उस आत्मा का पूजन करते हैं। द्वादशांग का अध्ययन करने वाले मुनिराज जब दशवें पूर्व का अध्ययन करते हैं तो उनके सामने एक दो नहीं बारह सौ देवता आकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं आप हमें स्वीकार कर लें। जो उन विद्याओं को स्वीकार लेते हैं उनके महाव्रत भंग हो जाते हैं। जो उन विद्याओं को नहीं स्वीकारते हैं वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं । इन विद्याओं में पाँच सौ (५००) महाविद्यायें और सात सौ (७००) लघुविद्याएँ होती हैं । अभिन्नदशपूर्वी मुनिराज की पूजा भक्ति भाव से देव लोग करते हैं । इसी तरह जब मुनिराज को चौदह पूर्व का ज्ञान हो जाता है तब भी पूजा करने के लिए देव लोग आते हैं I अहो ! कितना महत्त्व है इस द्वादशांग का कि देव लोगों को भी यह स्वत: ज्ञात हो जाता है कि इस आत्मा को दश पूर्व का या चौदह पूर्व का ज्ञान हो गया है। देव लोग मात्र ज्ञान की पूजा करने नहीं आते हैं । ज्ञान के साथ मुनि का सम्यक् चारित्र और निरीह भाव भी जुड़ा रहता है उसी अनासक्ति की पूजा की जाती है, इसे ही उपेक्षा चारित्र कहा जाता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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