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________________ शिक्षाप्रद कहानिया किसी आवश्यक कार्य से कुछ दिन के लिए राज्य से बाहर हूँ। मेरी अनुपस्थिति में राजकार्य सुचारू रूप में चलना चाहिए। इस दौरान ज्ञानमती राजा की खूब सेवा-सत्कार करती, उनसे खूब ज्ञान-ध्यान की बातें करती। इस संसार और शरीर की नश्वरता के बारे में तत्त्वचर्चा करती। लेकिन धीरे-धीरे राजा ज्ञानमती के रूप और यौवन पर मोहित हो गए। कहाँ तो वे ये जिज्ञासा लेकर आए थे कि मनुष्य पापकार्य करने के लिए क्यों मजबूर हो जाता है? बस फिर क्या था? एक दिन उन्होंने अपने मन की बात ज्ञानमती को बता दी और उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया। यह सुनकर पहले तो ज्ञानमती को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और तुरन्त ही बोली- हे! राजन्, आपको तो अपनी जिज्ञासा का उत्तर शीघ्र ही मिल गया। यह सुनकर राजा क्रोधित होते हुए बोला- यह मेरा उत्तर कैसे हो सकता है? तब ज्ञानमती बोली- पाप का मूल होते हैं- विकारी भाव। और वे विकारी भाव आप में भी उत्पन्न हो चुके हैं। और इन विकारी भावों में सबसे बड़ा होता है- लोभ। जोकि आपके अन्दर स्पष्ट दिख रहा है। कहाँ तो आप यहाँ ठहरने तक को तैयार नहीं थे और कहाँ आज आप मुझे रानी बनाने तक तैयार हैं। ये लोभ और आसक्ति ही मनुष्य को कुमार्ग की ओर खींचकर ले जाते हैं और बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं, जिससे मनुष्य न चाहते हुए भी पापकार्य में प्रवृत्त हो जाता है। और यही आपकी जिज्ञासा का समाधान है और कुछ नहीं। इसलिए कहा भी गया है कि परस्वे परदारेषु न कार्या बुद्धिरुत्तमैः। परस्वं नरकायैव परदाराश्च मृत्यवे॥ यह सुनकर राजा बहुत ही शर्मशार हुआ और ज्ञानमती को प्रणाम कर राजमहल की ओर प्रस्थान कर गया।
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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