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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 121 अर्थात्- सूर्य, चन्द्रमा, मेघ, पेड़-पौधे, नदी, गायें, पशु-पक्षी तथा सज्जन ये सब पृथ्वी पर परोपकार के लिए स्वयं उत्पन्न हुए हैं। ५०. लोभ बुरी बला है शतीच्छति सहस्रं वै, सहस्री लक्ष्मीहते । लक्षाधिपस्तथा राज्यं, राज्यस्थः स्वर्गमीहते ॥ अर्थात् जिसके पास सौ रूपए हैं, वह हजार की चाह करता है, जिसके पास हजार हैं, वह लाख की चाह करता है। जिसके पास लाख है वह करोड़ की, अरब की अथवा राज्य की चाह करता है। और जिसके पास ये सब हैं, वह स्वर्ग की चाह करता है। उक्त श्लोक का अर्थ तो आप समझ ही गए होंगे। इसका सीधा - सच्चा अर्थ है कि मनुष्य की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। उसके मन में एक ऐसा गहन गढ्ढा है, जो कभी भर नहीं सकता। लेकिन, हमारे पूर्वजों ने एक छोटी-सी सूक्ति कही है कि'अति सर्वत्र वर्जयेत।' अर्थात् कोई भी काम हो चाहे खाने का, पीने का धन पाने का इत्यादि । अगर हम अति करेंगे तो वह खतरनाक ही होगी । और यह बात बिलकुल 'हस्तामलकवत्' सत्य है। अगर किसी को यकीन न हो तो वह करके देख ले। रिजल्ट मिल जाएगा । इस सन्दर्भ में मुझे एक लोभी सेठ की कहानी याद आ रही है, जो कभी मेरे गुरुजी ने मुझे सुनाई थी। उसे ही मैं यहाँ लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ। राजस्थान के किसी शहर में एक सेठ जी रहते थे। नाम था उनका धनदास। वह इतना लोभी था कि उसके पास अपार धन-दौलत होते हुए भी और चाहने की इच्छा के कारण कभी खुश नहीं रहता था । इसी उधेड़-बुन में लगा रहता था कि कैसे और धन प्राप्त किया बस, जाए।
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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