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________________ . . . . . (14) . इस 166 नंबर की गाथा की पातनिका में श्री अमृतचंद्राचार्यजी लिखते हैं कि - ‘कथञ्चित् बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासः अयम्' याने वह पूजा, भक्ति, प्रशमादिभाव (शुभभाव) बंध का कारण होने से पूजा, भक्ति, प्रशमादिभाव मोक्षमार्ग नहीं हैं | याने शुद्धात्मानुभव न होने से वह अव्रती जीव मिथ्यात्वी. (प्रथमगुणस्थानवर्ती) है क्योंकि परसमय में रत है / _उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति से रहित अणुव्रत का पालन करनेवाला जीव भी मिथ्यात्वी (प्रथमगुणस्थानवर्ती) है / श्री धर्मदासजी क्षुल्लक ने खुद अपना जीवन वृत्त लिखा हुआ है / उस से यह निश्चित होता है कि स्वात्मानुभव के पहले वे अणुव्रत पालन करते थे, पूजादि भाव करते थे तो भी मिथ्यात्वी थे और जब स्वानुभूति हुई तब वे पंचमगुणस्थानवर्ती हुए। उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति से रहित महाव्रत का पालन करनेवाला जीव भी मिथ्यात्वी (प्रथमगुणस्थानवर्ती) है / देखो नियमसार गाथा नंबर 144 और उसकी संस्कृत टीका "जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासय लक्खणं ण हवे // 144 // अर्थ - जो जीव संयत रहता हुआ वास्तव में शुभ भाव में प्रवर्तता है ( आचरण करता है), वह अन्यवश याने परवश (मिथ्यात्वी) है इसलिये उस के वह आवश्यक स्वरूप कर्म (शुद्धात्मानुभव) नहीं है।" 1) टीप - पंचास्तिकाय गाथा 166 की श्री. अमृतचन्द्राचार्य विरचित टीका - 'परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वाद् इति।'
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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