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________________ - (13) प्रशमादि की अभिव्यक्ति यह लक्षण व्यवहारनय से है। अथवा आप्त, आगम, पदार्थ ये तत्त्वार्थ हैं / उन तत्त्वों में या उन पदार्थों में श्रद्धान, अनुरक्तता यह सम्यग्दर्शन का लक्षण अशुद्धनय से (अर्थात् आगमभाषा के अशुद्धसंग्रहनय से याने अध्यात्म भाषा के व्यवहारनय से ) है। सम्यग्दर्शन यह लक्ष्य है। शंकाकार - प्रशमादि की अभिव्यक्तिरूप लक्षण से तत्त्वार्थश्रद्धानरूप लक्षण के साथ क्यों विरोध नहीं आता है ? . समाधान - यह दोष नहीं है क्योंकि प्रशमादि की अभिव्यक्ति यह लक्षण शुद्धनयाश्रित (आगमभाषा के शुद्धसंग्रहनय अर्थात् अध्यात्मभाषा के उपचार व्यवहारनय के आश्रित) है और तत्त्वार्थश्रद्धान यह लक्षण आगमभाषा के अशुद्धसंग्रहनय अर्थात् अध्यात्मभाषा के व्यवहारनय के आश्रित है। . . अथवा तत्त्वरुचि (शुद्धात्मानुभव) यह सम्यक्त्व का लक्षण है / यह लक्षण (शुद्धात्मानुभव यह लक्षण) अशुद्धतरनयाश्रित (आगमभाषा के अशुद्धतर संग्रहनयाश्रित याने अध्यात्मभाषा के शुद्धनयाश्रित) है। . इससे यह सिद्ध हुआ कि श्री वीरसेन स्वामी (धवला टीकाकार) शुद्धात्मानुभूति को ही सम्यग्दर्शन का निर्दोष लक्षण मानते हैं और प्रशमादि यह . लक्षण व्यभिचारी (दोषयुक्त) है। श्री कुंदकुंदाचार्य पंचास्तिकाय में लिखते हैं कि - "अरहंतसिद्धचेदिय पवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि // 166 // __ अर्थ - अरहंत, सिद्ध, चैत्यालय, प्रतिमा, प्रवचन अर्थात् सिद्धान्त, मुनिसमूह, ज्ञान की भक्ति, स्तुति, पूजा, सेवादिक से संपन्न पुरुष बहुत प्रकार का या बहुतबार अनेक प्रकार के पुण्यकर्म को बांधता है; लेकिन वह पुरुष कर्मक्षय नहीं करता (याने संवरपूर्वक निर्जरा अथवा मोक्षमार्गस्थ नहीं होता)
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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