________________ श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) - प्रो. डॉ. राजाराम जैन, नोयडा आचार्य भद्रबाहु ने मगध के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के समय दिगम्बरत्व की सुरक्षा के लिए ससंघ दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान करने का ही निर्णय क्यों लिया? उन्होंने अन्यत्र विहार क्यों नहीं किया? जहाँ तक हमारा अध्ययन है, जैन-साहित्य में एतद्विषयक प्रश्नों के उत्तर सम्भवत: अनुपलब्ध है। मुझे तो साक्ष्य-सन्दर्भ नहीं मिल सके और इस तथ्य पर अभी तक सम्भवतः विचार भी नहीं किया गया है। मेरी दृष्टि से इसके समाधान के लिए जैनेतर साहित्य विशेष रूप से प्राच्य बौद्ध-साहित्य से कुछ सहायता मिल सकती है। बौद्धों के सुप्रसिद्ध इतिहास-ग्रन्थ- महावंश (पांचवीं सदी) में एक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार सिंहल (श्रीलंकार) देश के राजा पाण्डुकाभय (ई.पू. 467) ने अपनी राजधानी अनुराधापुरा में वहाँ विचरण करने वाले निर्ग्रन्थों की साधना के लिए एक गगनचुम्बी भवन का निर्माण कराया था। महावंश के उक्त सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि ई.पू. पांचवीं सदी में सिंहल-देश में निर्ग्रन्थ-धर्म अर्थात् जैनधर्म का अच्छा प्रसार था और निर्ग्रन्थ-मुनि निर्बाध होकर वहाँ विचरण किया करते थे। इस तथ्य से यह विचार तर्कसंगत लगता है कि जैनधर्म कर्नाटक, आन्ध्र, तमिल एवं केरल होता हुआ ही सिंहल-देश में प्रविष्ट हुआ होगा। तमिलनाडु के मदुरई और रामनाड् में ब्राह्मी-लिपि में महत्त्वपूर्ण कुछ प्राचीन प्राकृत-शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। उन्हीं के समीप जैन-मन्दिरों के अवशेष तथा तीन-तीन छत्रों से विभूषित अनेक पार्श्व-मूर्तियाँ भी मिली हैं। इन प्रमाणों के आधार पर सुप्रसिद्ध पुराविद् डॉ. सी.एन. राव का कथन है कि - "ई.पू. चतुर्थ सदी के आस-पास जैनधर्म ने तमिलनाडु के साथ-साथ सिंहल-देश को भी विशेष रूप से प्रभावित किया था।' जैनेतिहास के अनुसार तिरुवल्लुवरकृत “कुरलकाव्य' एवं व्याकरण-ग्रन्थ- “तोलकप्पियम्' जैसे तमिल के आद्य गौरव-ग्रन्थ जैनधर्म की अमूल्य कृतियाँ मानी गयी हैं। इनके आधार पर इतिहासकारों की यह मान्यता है कि वैदिक अथवा ब्राह्मण-धर्म के प्रभाव के पदार्पण के पूर्व ही तमिल-प्रान्त में जैनधर्म का प्रवेश हो चुका था। कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि तमिल के शास्त्रीय श्रेणी के आद्य-महाकाव्यों में से एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “नालडियार" में उन आठ सहस्र जैन मुनियों की रचनाएँ ग्रथित हैं, जो पाण्ड्य-नरेश की इच्छा के विरुद्ध पाण्ड्य-देश छोड़कर अन्यत्र विहार करने जा रहे थे। यह ग्रन्थ समकालीन पाण्ड्य-देश में लिखा गया था। बहुत सम्भव है कि ये आठ सहस्र जैन-मुनि आचार्य भद्रबाहु के आदेश से दक्षिण भारत के सीमान्त की ओर गये थे। कलिंगाधिपति जैन सम्राट् खारवेल ने अपने हाथीगुम्फा-शिलालेख में लिखा है कि उस (खारवेल) ने अपनी दिग्विजयों के क्रमों में दक्षिणापथ में 1300 वर्षों से चले आ रहे सशक्त संघात को भी तोड़ दिया था। -125