________________ इस संघात अर्थात् महासंघ में तत्कालीन सुप्रसिद्ध राज्य- चोल, पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (सिंहल) सम्मिलित थे और यह महासंघ तमिल-संघात (United Sates of Tamil) के नाम से प्रसिद्ध था। मेरी दृष्टि से सम्राट् खारवेल का उक्त आक्रमण केवल राजनैतिक दृष्टि से ही नहीं था, बल्कि जैनधर्म के विरोधिय जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में उक्त तमिल-महासंघ के माध्यम से जो गतिरोध उत्पन्न कर दिये थे, खारवेल ने उनसे क्रोधित होकर उस महासंघ को कठोर सबक सिखाया था और संघीय-राज्यों में जैनधर्म को यथावत् विकसित और प्रचारित होने का पुन: अवसर प्रदान किया था। यह भी विचारणीय है कि सम्राट् खारवेल ने कलिंग में जो विराट् जैन-मुनि सम्मेलन बुलाया था, क्या वह 'तमिरदेहसंघात' के द्वारा की गयी जैनधर्म के ह्रास एवं जैनागमों की क्षतिपूर्ति के विषय में विचारार्थ तथा आगे के लिए योजनाबद्ध सुरक्षात्मक एवं विकासात्मक कार्यक्रमों के संचालन की दृष्टि से तो आयोजित नहीं था? अन्यथा, वह देश के कोने-कोने से सभी दिशाओं-विदिशाओं से लाखों की संख्या (सतसहसानि) में महातपस्वी-मुनि-आचार्यों से पधारने का अनुरोध कर, उनका सम्मेलन क्यों करता तथा उनसे उसमें मौर्यकाल में उच्छिन्न 'चोयट्ठि' (चउ(चार)+अट्ठि(आठ)= द्वादशांग-वाणी) का वाचन-प्रवचन करने के लिए उनसे सादर प्रार्थना क्यों करता? यह यक्ष-प्रश्न गम्भीरतापूर्वक विचार करने का है। श्रावक-शिरोमणि सम्राट् खारवेल चोयट्ठि (द्वादशांग-वाणी) के क्रमिक-ह्रास के कारण सम्भवतः अत्यन्त चिन्तित हो गया था, इसीलिए उसने आगम-वाचना करायी थी। आश्चर्य यही है, इस आगम-वाचना का उल्लेख किसी ने नहीं किया। इसका कारण समझ में नहीं आ रहा है। यह सौभाग्य की बात है कि इसका उल्लेख खारवेल-शिलालेख में स्वयं उपलब्ध हो गया। तात्पर्य यह कि कर्नाटक सहित दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का काल और अधिक नहीं, तो कम से कम ई.पू. 1450 (-150+1300) वर्ष अर्थात् तीर्थङ्कर पार्श्व (ई.पू. लगभग ९वीं सदी) से भी पूर्वकालीन था। उक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि भद्रबाहु-पूर्व दक्षिण-भारत में जैनधर्म सर्वत्र व्याप्त था, वहाँ उसकी अच्छी प्रभावना थी। जैन-संस्कृति को लोकप्रियता प्राप्त थी, जैनसंघ तथा जैनागामें की सुरक्षा की दृष्टि से वह एक उपयुक्त स्थल था। भले ही वहाँ के जैनधर्म के प्रचारकों या आचार्यों के नाम हमारे लिए अज्ञात हो; किन्तु सम्भवत: आचार्य भद्रबाहु को उनकी जानकारी अवश्य रही होगी, इसीलिए उन्होंने अपने नवदीक्षित-शिष्य मगधाधिपति सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) सहित 12000 मुनिसंघ के साथ दक्षिण-भारत की ओर विहार किया था। -126.