SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमती रानी रयनमंजूषा [67 होकर गिर पड़ी। उसके दुःखका पारावार नहीं रहा। जो राजकुमारी अपने पतिके थोडे दिनोंके बिछोहके दुःखोंको भी सहनेमें असमर्थ थी उसे अपने स्वामीका इन जन्मभरके लिए बिछोह हुआ है, कहिये उसके दुःखका अन्त कैसे हो सकता है? जिसका जीवनधार समुद्रकी अविरल तरंगोंमें लुप्त हो गया है उसे धैर्य कैसे हो सकता है? रयनमंजूषा मूर्छासे सचेत होने पर स्वामीका स्मरण कर फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी प्रतिध्वनिसे सारा जहाज कांप उठा! उसने भोजनादि त्याग दिया, केवल स्वामीके नामका ही स्मरण कर अपने जीवनको व्यतीत करने लगी। अभीतक उस सरल साध्वी सुन्दरीको यह नहीं ज्ञात हुआ है कि यह कुकृत्य इसी नर-पिशाच धवलसेठका है। धवलसेठ अपने कार्यकी सिद्धिका समय निकट जान बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपने कुमारीको श्रीपालसे असन्तुष्ट कराकर अपने उपर प्रसन्न करानेके लिए एक दूतीको कुमारीके पास भेजा। दूतीने कई चालोंसे कुमारीको समझाया परंतु कुमारी तो महापतिव्रता पत्नी थी, वह कैसे अपने स्थिर न्यायमार्गके कृत्योंके विरुद्ध कार्य कर सकती थी? उसने दूतीको खूब धमकाया। ___धवलसेठने दूतीसे अपने कार्यकी सिद्धि होना असम्भव समझा तब वह स्वयं कुमारीकी सेवामें जाकर प्रार्थना करने लगा-"तुम्हारा पति तो अब परलोक चला गया है। तथा तुम्हारी इस समय किशोरावस्था है। तुम अपने वैधव्यका किस तरह निर्वाह कर सकोगी? तुम्हारा पति श्रीपाल मेरे पास ही नौकर था। तुमको चाहिये कि मेरे उपर प्रसन्न होकर इच्छित सुखोंको भोगो।" इत्यादि इत्यादि उसने अपनी प्रशंसाकी बहुतसी बात कहीं, परंतु जब रयनमंजूषाने उस दुष्टकी एक भी बातपर ध्यान
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy