SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमती मनोरमादेवी [59 जोर जोरसे पुकारने लगी। इस निराश्रित अबलाके कर्णभेदी विलापके शब्दसे सारथिका हृदय पानी पानी हो गया और उसके कहे अनुसार उसके माता पिताके घर उज्जैन पहुंचा देनेकी प्रतिज्ञा की। उज्जैन पहुंचने पर सेठ महीदत्तने भी एकाएक पुत्रीके आनेसे संपल्य विकल्प कर उसे अपने घरमें रखनेकी अनिच्छा प्रकट की। तब सारथिने निराश होकर बिलखती हुई मनोरमा सुन्दरीको एक सघन जंगलमें छोड़कर वैजयन्ती नगरका रास्ता लिया। कुमारी अपने भाग्यको धिक्कारती हुई वनस्पतियोंसे अपने जीवनके दिन निर्वाह करने लगी। कभी अपने पतिवियोगके दुःखोंपर, कभी कलंकके पातकपर कभी पूर्वोपार्जित कर्मों पर फूट फूटकर रोने लगती थी। परंतु उसके कर्मोने उसे अभी तक नहीं छोड़ा और सहसा एक विपत्तिका और पहाड़ उसके उपर डाल दिया जिसका वर्णन इस प्रकार है -- सुन्दरी एक वृक्षकी छायामें बैठी हुई अपने हृदय-सर्वस्व स्वामी सुखानन्दके ध्यानमें मग्न थी कि वहांके राजगृहका राजकुमार वनक्रीड़ा करता हुआ आ निकला। यह भी सुन्दरीके रूप यौवन पर आसक्त हो गया और सुन्दरीको अपने नगरमें से जाकर एक मनोज्ञ महलमें रखा। सुन्दरीका जीवनाकाश तठोर कृष्ण मेघदलोंसे आच्छत्र हो गया। अब उसे सिवाय क ईश्वरके ओर किसीका आधार नहीं रहा। उसने हृदयमें विरका ध्यान कर प्रार्थना की कि हे जगदोद्धार! चिदानन्द अनबन्धु! दीनानाथ परमेश्वर! आज मेरा सर्वस्व लुटा जा रहा / मेरा सतीत्व भ्रष्ट करनेके लिये यह नररूप राक्षस शीघ्र जानेवाला है, इसलिये शीघ्र मेरे सतीत्वकी रक्षा कीजिये!!!
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy