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________________ 94 क्षयोपशम भाव चर्चा हेतु या कारण होता है और सदोषतारूप पर्यायांश, आस्रव-बन्ध का हेतु या कारण होता है। देशघाति-स्पर्द्धक, जब जघन्य भाव से उदय में आकर खिरते हैं, तब वे स्वप्रकृति का बन्ध करने में समर्थ नहीं होते, परन्तु उतने अंश में जीव की पर्याय में सदोषता रूप परिणमन अवश्य होता है। जैसे, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव के समल तत्त्वार्थश्रद्धान का कारण सम्यक्त्व-मोहनीय-प्रकृति का उदय ही होता है, तथापि उससे नवीन दर्शनमोह आदि प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। इसी तरह सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के जब संज्वलन लोभ, जघन्यभावरूप से उदय में आकर खिरता है, तब चारित्रगुण की पूर्ण वीतराग रूप निर्मल पर्याय का उद्भव नहीं होता और अल्प सदोषता होने पर भी उससे चारित्रमोह (संज्वलन) की नवीन प्रकृति का आस्रव-बन्ध नहीं होता है। यद्यपि उस समय भी अन्य ज्ञानावरणादि 16 प्रकृतियों का बन्ध होता है, वह देशघाति-स्पर्द्धकों के उदय से होने वाले संज्वलन-कषायांश से ही होता है और सर्वघाति-स्पर्द्धकों के अनुदय से प्रगट होने वाले वीतरागांश से संवर -निर्जरा ही होती है - ऐसे एक मिश्रभावरूप क्षायोपशमिक भाव (क्षायोपशमिक चारित्र) साधक जीवों के निरन्तर यथायोग्य संवर-निर्जरा एवं आस्रव-बन्ध, दोनों होते ही रहते हैं। इस विषय का और अधिक स्पष्टीकरण आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में संवरतत्त्व की भूल बताते हुए, पृष्ठ 227/228 पर किया है, जो निम्न प्रकार है - _ “संवरतत्त्व में अहिंसादिरूप शुभास्रवभावों को संवर जानता है; परन्तु एक ही कारण से पुण्यबन्ध भी माने और संवर भी माने; वह नहीं हो सकता। प्रश्न - मुनियों के एक काल में एक भाव होता है, वहाँ उनके बन्ध भी होता है और संवर-निर्जरा भी होते हैं, सो किस प्रकार है? समाधान - वह भाव, मिश्ररूप है। कुछ वीतराग हुआ है, कुछ सराग रहा है, जो अंश वीतराग हुए, उनसे संवर है और जो अंश सराग रहे, उनसे बन्ध है;
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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