SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय चर्चा : सम्यक् क्षायोपशमिक भाव चर्चा समीक्षा - एक ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि अधिकतर देशघाति और सर्वघाति-कर्म ऐसे होते हैं, जिनमें देशघाति और सर्वघाति - दोनों प्रकार के स्पर्द्धक पाये जाते हैं। केवल नौ नोकषायों और सम्यक्त्व-मोहनीय - ये दस प्रकृतियाँ, सर्वघाति-स्पर्द्धकों से रहित होती हैं। इनमें मात्र देशघाति ही स्पर्द्धक पाये जाते हैं, अतः नौ नोकषायों को छोड़कर, शेष सभी देशघाति कर्मों का क्षयोपशम सम्भव है; क्योंकि क्षयोपशम के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार क्षयोपशम में सर्वघाति-स्पर्द्धकों का अनुदय एवं देशघाति-स्पर्द्धकों का उदय, इन दोनों प्रकार के कर्मों की भूमिका होती है, उसमें भी संयमासंयम भाव की प्राप्ति में प्रत्याख्यानावरण कर्म को अपेक्षाभेद से देशघाति मान लिया जाता है और सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व से मिल कर, क्षयोपशमिक भाव को जन्म देती है; इसलिए क्षायोपशमिक भाव के केवल अठारह भेद ही घटित होते हैं। इन सब भावों में देशघाति-स्पर्द्धकों का उदय होता है, इसलिए इन्हें वेदक भी कहते हैं,अत: जितने भी क्षायोपशमिक भाव होते हैं, देशघाति-स्पर्द्धकों के उदय से वेदक भी कहलाते हैं - यह उक्त कथन का तात्पर्य है। __इसमें सर्वघाति-स्पर्द्धकों या सर्वघाति-प्रकृतियों का वर्तमान समय में अनुदय रहता है, इसलिए उनके उदय-काल के एक समय पहले उदयरूप देशघातिस्पर्द्धकों या प्रकृतियों का क्षयोपशम भाव में स्तिबुक-संक्रमण हो जाता है, इसे ही प्रकृत में उदयाभावी क्षय कहते हैं। यहाँ उदय का अभाव ही क्षयरूप से विवक्षित है और आगामी काल में उदय में आने योग्य इन्हीं सर्वघाति-प्रकृतियों व सर्वघातिस्पर्द्धकों का सत्ता में पड़े रहनेरूप या सदवस्थारूप उपशम रहता है, उनकी उदीरणा नहीं होती, मात्र स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा इनके उदयकाल से एक समय पहले सजातीय देशघाति-प्रकृति या देशघाति-स्पर्द्धकरूप से संक्रमण हो होकर निर्जरा होती रहती है। सर्वघाति अंश/अनुभाग का उदय और उदीरणा न होने से जीव का स्वभावभाव, निर्मल-पर्यायांशरूप से व्यक्त होकर वर्तता रहता है और देशघाति अंश/ अनुभाग का उदयरहनेसे उसमेंसदोषतारूपमलिन-पर्यायांशभी व्यक्तरूपसेवर्तता रहता है-यही निर्दोषता केसाथसदोषताका मिला-जुलाएकपरिणाम, मिश्रभावरूप 'क्षायोपशमिक भाव' कहलाता है; इसमें निर्दोषतारूप पर्यायांश, संवर-निर्जरा का
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy