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________________ 64 क्षयोपशम भाव चर्चा (करणलब्धि में प्रविष्ट होकर) निर्विकल्प स्वसंवेदनपूर्वक प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है; तब स्वरूपाचरणस्वरूप सम्यक्त्वाचरण को प्राप्त करता है; पश्चात् सकलसंयमाचरणी होकर यथाख्यात क्षायिकचारित्र प्रगट कर सर्वज्ञ होकर अरहन्तावस्था पा जाता है और अघाति कर्मों का स्वयमेव क्षय होने पर अशरीरी सिद्धावस्था प्राप्त कर, सादि अनन्तकाल तक लोकाग्र में जा सुस्थित रहते हैं। तात्पर्य यह है कि औपशमिकभाव के बिना धर्म की शुरुआत नहीं होती, क्षायिकभाव के बिना धर्म की पूर्णता नहीं होती, अरहन्त-सिद्ध नहीं होते। क्षायोपशमिकभाव के बिना कोई छद्मस्थ नहीं होता। औदयिकभाव के बिना कोई संसारी नहीं होता, और जीवत्वभाव/पारिणामिकभाव के बिना कोई जीव नहीं होता। दिनांक - 07.09.2007 परम-पारिणामिक-भाव की विशेषताएँ जीव के पाँच भावों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, और औदयिक - ये चार भाव, पर्यायरूप हैं। यद्यपि जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - ये तीन भाव भी कर्म के उदय-उपशम-क्षय-क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिए ये भी व्यवहारनय से जीव के असाधारण पारिणामिकभाव कहलाते हैं; तथापि शुद्धपारिणामिकभाव जो त्रिकाल एकरूप ध्रुव है, जो द्रव्यरूप होने से द्रव्यार्थिकनय का विषय है। जब जीव, अपने त्रिकाल, अखण्ड, ध्रुव, नित्य, शुद्ध पारिणामिक भाव की तरफ अपना लक्ष्य स्थिर करता है, तब औपशमिक सम्यक्त्वादि भाव प्रगट हो जाते हैं। आत्मा के निजतत्त्व में त्रिकाल लवलीन वर्तता हुआ, ऐसा पारिणामिकभावस्वरूप सहजज्ञान ही मोक्ष का साक्षात् कारण है, इसलिए वही उपादेय है। आत्मा का पाणिामिक स्वभाव ध्रुव है, सदा एकरूप है, इसमें औदयिक आदि चार भावों का समावेश नहीं होता; इसलिए वह इन चार क्षायिक आदि भावों से अगोचर है अर्थात् पारिणामिकभाव, इन चार भावों के आश्रय से ज्ञात भी नहीं होता है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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