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________________ मंगलाचरण : ब्र. हेमचन्द जैन का आगमगर्भित पत्र 3. कर्मों के समूल विनाश होने को 'क्षय' कहते हैं। कर्मों के क्षय से जीव का जो निर्मल भाव होता है, उसे क्षायिकभाव कहते हैं; इसके ज्ञानादि नौ भेद होते हैं। ____4. घातिकर्मों में सर्वघाति' और 'देशघाति' - दो प्रकार के स्पर्द्धक (परमाणु) होते हैं। जो जीव के सम्यक्त्व तथा ज्ञानादि अनुजीवी गुणों को पूरी तरह से घातें, उन्हें 'सर्वघाति स्पर्द्धक' कहते हैं और जो एकदेश घातें, उन्हें 'देशघाती स्पर्द्धक' कहते हैं। ___वर्तमानकाल में उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल में उदय आने योग्य उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और देशघाती स्पर्द्धकों के उदयसहित कर्मों की अवस्था होने को ‘क्षयोपशम' कहते हैं और कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से जीवों का जो मिश्रभाव होता है, जिसमें सर्वघाति स्पर्द्धकों के अनुदय से उत्पन्न निर्मलता तथा देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से उत्पन्न मलिनतारूप मिश्र-अवस्था होती है, उसे क्षायोपशमिकभाव कहते हैं; इसके ज्ञान-दर्शन आदि 18 भेद होते हैं। 5. जीव का जो भाव, कर्मों के उदय-उपशम-क्षय-क्षयोपशम की अपेक्षा न रखता हुआ, आत्मा का शुद्ध जीवत्वरूप स्वभाव मात्र हो, उसे पारिणामिकभाव कहते हैं। यही पारिणामिकभाव, साधक अन्तरात्माओं के ध्यान का ध्येय होता है। यह भाव, द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मों से रहित एकशुद्ध चिद्रूप अविनश्वर सत्तामात्र अनन्त गुण-धर्म-शक्तियों का पिण्डरूप चैतन्यभाव है, जो सदैव उपयोग-लक्षण' से लक्षित रहता है। ज्ञान-दर्शन-वीर्य की अनादि से ही प्रगट क्षायोपशमिकभावरूप अवस्था, जीवों के अपने-अपने आवरण कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार पायी जाती है, जो बारहवें गुणस्थान तक रहती है। यही जीवों के स्वभाव का व्यक्त अंश है, जिससे जानन-देखन क्रिया सदैव होती रहती है। श्रद्धा व चारित्रगुण की अनादि से ही औदयिकभावरूप अवस्था (मिथ्यात्व -कषायरूप अवस्था) जीवों के अपने-अपने मोहनीयकर्म के तीव्र-मन्द उदयानुसार पायी जाती है। जब कोई भव्यात्मा, जिनोपदिष्ट तत्त्वों का श्रवण-ग्रहण कर शुद्धात्माभिमुख
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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