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________________ सच्चे परीक्षा-प्रधानी बनो! यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् / लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति / / अर्थ - जिस व्यक्ति को (खरे खोटे का) निर्णय करने की बुद्धि नहीं है, उसके लिए शास्त्र क्या करें? जैसे, दोनों नेत्रों से विहीन व्यक्ति के लिए दर्पण क्या करेगा? अर्थात् कुछ नहीं कर सकता। वस्तुतः पूर्वाग्रह और पक्षपात को छोड़े बिना सत्यासत्य का निश्चय/निर्णय नहीं हो सकता। पूर्वाग्रह और पक्षपात को छोड़कर ही सत्य का शोध हो सकता है। जैसे, अज्ञानी पापी जीव, पाप-परिणति/पापाचरण छोड़ते नहीं और पापी भी कहलाना चाहते नहीं। निज आत्मा का लक्ष्य करते नहीं और सद्विचारों को गले लगाते नहीं एवं सदाचरण आचरते नहीं, फिर भी वे पुण्यात्मा धर्मात्मा कहलाना चाहते हैं तो यह कैसे सम्भव हो? निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी और उभयाभासी; तीनों प्रकार के दिगम्बर जैन अपने को सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, धर्मात्मा मानते हैं, दूसरों से भी मनवाना चाहते हैं, परन्तु निश्चय का आभास, व्यवहार का आभास और उभय का आभास, छोड़े बिना वे सच्चे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं? वे तो सम्यक्त्व के सम्मुख मिथ्यादृष्टि भी नहीं हो सकते। यथार्थ (भूतार्थ) का नाम निश्चय; उपचार(अभूतार्थ) का नाम व्यवहार - ऐसा समझे बिना समझ सही हो नहीं सकती। वस्तुतः अपनी अज्ञानता का आभास ही बुद्धिमत्ता के मन्दिर का प्रथम सोपान है। जैनदर्शन/जैनधर्म पूर्णतः विज्ञान-आधारित दर्शन/धर्म है। आधुनिक विज्ञान का उत्तरोत्तर विकास, विज्ञान को जैनदर्शन के समीप लाता जा रहा है। जैनदर्शन व्यक्ति निष्ठ न कभी था, न है, और न रहेगा। वह तो सदैव से वस्तुनिष्ठ था, है, और रहेगा। महाकवि कालिदास ने अपनी कृति ‘मालविकाग्निमित्रं' में परीक्षा-प्रधानी व्यक्ति को ही ज्ञानी (सन्त) और परीक्षारहित अन्धविश्वासी को अज्ञानी मूढ़ कहा है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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