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________________ 46 क्षयोपशम भाव चर्चा इस प्रकार काय-चेष्टा पूर्वक होने वाले पर-प्राणों के घात से बन्ध का होना तो अनैकान्तिक होने से उसके छेदपना अनैकान्तिक है, नियमरूप नहीं है। (प्रवचनसार गाथा 219 की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका का भावार्थ) इस प्रकरण का अन्तिम निष्कर्ष बताते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव, एक कलश (श्लोक) के माध्यम से अपनी बात कहते हैं - वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्त-,-मेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि। व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं, निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि।। अर्थात् यहाँ जो कहने योग्य था, वह अशेषरूप से कहा गया है, इतने मात्र से ही यदि कोई चेत जाए, समझ ले तो उचित है, क्योंकि जो निश्चेतन (जडवत् नासमझ) है, उसके व्यामोह का जाल वास्तव में अतिदुस्तर है; अत: उसे तो अति -विस्तार से समझाया जाए तो भी कोई लाभ नहीं है। ___5. शुभोपयोग-अशुभोपयोग-शुद्धोपयोग या शुभभाव-अशुभभाव-शुद्धभाव या शुभपरिणाम-अशुभपरिणाम-शुद्धपरिणाम या पुण्य-पाप-धर्म या शुभोपरागअशुभोपराग-वीतराग या शुभयोग-अशुभयोग-शुद्धयोग; इन सभी का स्थूल-दृष्टि से एक ही तात्पर्य है - ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है, आगम में भी अनेक जगहों पर एकार्थ में इनके प्रयोग किये गये हैं, परन्तु सूक्ष्म-दृष्टि से देखने पर इनके अलगअलग अर्थ भी सम्भव हैं। जैसे, शुभोपयोग-अशुभोपयोग-शुद्धोपयोग - इन तीन भेदों में उपयोग की मुख्यता से व्याख्यान होता है। इनमें भी जब हम गुणस्थान-परिपाटी से चर्चा करते हैं, तब अशुभोपयोग में मिथ्याभिप्राय से युक्त शुभ-अशुभ, दोनों भावों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रथम तीन गुणस्थानों में ही मिथ्याभिप्राय (दर्शनमोह की मुख्यता) होने से इन तीन गुणस्थानों में ही अशुभोपयोग कहा गया है, क्योंकि विचार करने पर वास्तव में भी मिथ्या-अभिप्राय अर्थात् श्रद्धा-सम्बन्धी दोष होने पर उपयोग को भी शुभ कैसे माना जा सकता है? उसके बाद के तीन गुणस्थानों (4 से 6) में यद्यपि सम्यक्-अभिप्राय होता है, तथापि उसके साथ शुभ-विकल्प होता है-, अत: वहाँ मुख्यता से शुभोपयोग
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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