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________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष कहा है, लेकिन मिथ्या-अभिप्राय के साथ शुभ-विकल्पों की ‘शुभोपयोग' संज्ञा नहीं हो सकती है, क्योंकि मिथ्या-अभिप्रायरूप महा-अशुभ के रहते हुए भावरूप किंचित् शुभ का महत्त्व नहीं है। इसके बाद के छह गुणस्थानों (7 से 12) की 'शुद्धोपयोग' संज्ञा है, क्योंकि वहाँ अभिप्राय भी सम्यक् और भाव या परिणाम भी कषाय-रहित वीतराग हुआ है; वहाँ सातवें से दशवें गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक कषाय का अभाव हुआ है, जबकि ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में सर्वथा कषाय-रहितपना होने से पूर्ण वीतरागस्वरूप यथाख्यात-चारित्ररूप शुद्धोपयोग है। ___ इसके बाद तेरहवें आदि गुणस्थानों (13-14) में भी शुद्धोपयोग तो होता है, परन्तु वहाँ शुद्धोपयोग के साक्षात् फल केवलज्ञान एवं सिद्धदशा की मुख्यता होने से उनकी प्रधानता से उन्हें 'शुद्धोपयोग' के फल से जोडा गया है। यद्यपि नियमसार में अन्तिम 'शुद्धोपयोग अधिकार' में इन गुणस्थानवर्ती अरहन्तों को एवं सिद्ध भगवन्तों को शुद्धोपयोगी कहा गया है। (देखें, नियमसार गाथा 159 से 187) इसी प्रकार पुण्य-पाप-धर्म या शुभोपराग-अशुभोपराग-वीतराग को भी उक्त शुभोपयोग-अशुभोपयोग-शुद्धोपयोग या शुभभाव-अशुभभाव-शुद्धभाव या शुभपरिणाम-अशुभपरिणाम-शुद्धपरिणाम की तरह ही समझ लेना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे - शुभयोग-अशुभयोग-शुद्धयोग आदि में मन-वचन-काय के योग की प्रधानता होती है, अतः इन्हें शुभलेश्या-अशुभलेश्या-अलेश्या से भी जोडकर देखा जा सकता है। ___यहाँ विशेष इतना है कि तेरहवें गुणस्थान में भी शुक्ललेश्या होने से शुभलेश्या ही मानी गयी है, सिद्ध भगवन्तों को ही अलेश्य माना है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थानवर्ती अरहन्त भगवान अयोगी होने से शुद्धयोगी कहे जा सकते हैं, तथापि द्रव्यलेश्या की अपेक्षा उन्हें भी शुक्ललेश्या ही मानी गई है। इसी प्रकार अन्यत्र भी द्रव्यलेश्या-भावलेश्या में शुभ-अशुभपना यथायोग्य समझ लेना चाहिए।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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