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________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' (येनांना इसी स्थल पर लिखा है - सरागचारित्रंशुभोपयोगः इति अर्थात् सरागचारित्र को शुभोपयोग कहते हैं। (न कि मात्र मन्दकषाय को) __ - इन पाँच बिन्दुओं से स्पष्ट है कि शुभोपयोग में सम्यक्त्व या चारित्रपरिणाम तथा रागांश दोनों गृहीत होते हैं। जिसे विस्तार से मुख्तार ग्रन्थ भाग 1, पृष्ठ 733-34, 777. 851-852 पर भी कहा गया है। शुभोपयोग में इस रत्नत्रयांश से नियम से संवर अथवा संवर-निर्जरा तथा रागांश से नियम से आम्रव-बन्ध होते हैं। कहीं-कहीं शुभोपयोग के इस रागअंश को ही मुख्य करके मात्र शुभराग या विशुद्धि को भी शुभोपयोग कहा है, वह भी ठीक है / उस दृष्टि से यानि रागांशात्मक शुभोपयोग की दृष्टि से तो वह नियम से बन्ध का ही कारण है। (येनांशेनास्य रागः ..... पुरुषार्थसिद्धयुपाय, आचार्य अमृतचन्द्र) शंका 2 - आगम में अनन्तानुबन्धी को द्वि-स्वभावी कहा है - यह लक्षण -दृष्टि का कथन है या विवक्षा-कथन है या पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में पृष्ठ 336-337 पर यह सिद्ध किया है कि 'अनन्तानुबन्धी चारित्र ही का घात करती है, सम्यक्त्व का घात नहीं करती, सो परमार्थ से है तो ऐसा ही .... उपचार से अनन्तानुबन्धी के भी सम्यक्त्व का घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।' ___ अत: मेरे विचार से अनन्तानुबन्धी को द्वि-मुखी कहना विवक्षा है, लक्षणदृष्टि का कथन नहीं है। समाधान - (अ) धवल 6/38 पर दर्शनमोह के तीन ही भेद बताये - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व (दसणमोहस्स संतकम्मं तिविहं सम्मतं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि); सात भेद नहीं बताये, जिससे कि अनन्तानुबन्धी - क्रोध, मान, माया, लोभ को भी दर्शनमोह माना जाये। (ब) धवल 16 पृष्ठ 341 व 415-16 में स्पष्ट कहा है कि मिथ्यात्व का प्रथम गुणस्थान में संक्रम नहीं होता तथा सासादन में भी अनन्तानुबन्धी के बँधते हुए भी मिथ्यात्वादि तीन का संक्रम नहीं बताया। (मिच्छत्तस्स संकामओ को होइ - सम्माइट्ठि / सासणो वि दंसणमोहणीयस्स असंकामगो)
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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