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________________ क्षयोपशम भाव चर्चा अतः यह स्पष्ट है कि संक्रमण-प्रकरण में भी अनन्तानुबन्धी को शुद्ध चारित्रमोह माना। अन्यथा दर्शनमोहरूप मानते तो प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व के असंक्रम का प्रश्न ही नहीं बनता, क्योंकि उससमय अनन्तानुबन्धी बध्यमान सजातीयप्रकृति उपलब्ध है, अतः मिथ्यात्व का उसमें संक्रम बन जाता, पर वैसा नहीं कहा; अतः सुस्पष्ट है कि संक्रम में भी अनन्तानुबन्धी को शुद्ध चारित्रमोह ही माना है। (स) आगम में आदि के चार गुणस्थानों में दर्शनमोह के उदय की विवक्षा करके सासादन में पारिणामिकभाव कहा। (सर्वार्थसिद्धि 1/8, गोम्मटसार जीव 11, धवल 1/169-70, षट्खण्डागम 5/197) परन्तु यदि ये अनन्तानुबन्धी को भी दर्शनमोह मानते तो सासादन में उक्त स्थलों पर औदयिकभाव कहते। इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि अनन्तानुबन्धी परमार्थतः (उक्त दृष्टियों से) मात्र चारित्रमोह का ही भेद है। तथापि चूंकि प्रथम गुणस्थान में दो प्रकार का विपरीताभिनिवेश पाया जाता है - एक मिथ्यात्व-जनित तथा दूसरा अनन्तानुबन्धी-जनित। (धवल 1/165) इन दोनों के गये बिना त्रिकाल भी सम्यक्त्व नहीं हो सकता; अतः इस कारण अनन्तानुबन्धी को सम्यक्त्व की प्रतिबन्धक (अथवा प्रतिबन्धक अर्थ में ही घातक नाम देना) कहना बिल्कुल ठीक है। ये अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व का घात करती है तथा मिथ्यात्व से सम्बन्ध कराती है। (सम्यक्त्वं घ्नन्ति अनन्तानुबन्धिनः (उपासका, 925) अनन्तं मिथ्यात्वं सम्बन्धयन्ति (कार्तिकेयानुप्रेक्षा 308, तत्त्वार्थवृत्ति श्रुतसागरी 8-9) धवला तथा गोम्मटसार के आधारभूत ग्रन्थ पंचसंग्रह (1/115) में भी लिखा है कि पढमो दंसणघाई अर्थात् प्रथम चौकड़ी अनन्तानुबन्धी, दर्शन (सम्यक्त्व) की घातक (प्रतिबन्धक) है। इसी का अनुकरण गो. जी. 283, गो.क. 45, पंचसंग्रह संस्कृत 1/204-5 आदि में है। धवला में भी कहा है - एदे चत्तारि वि सम्मत्तचारित्ताणं विरोहिणो; दुविहसत्ति संजुत्तत्तादो। अर्थात् चारों ही अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व व चारित्र दोनों की विरोधी हैं, क्योंकि अनन्ताबन्धी कषायों की शक्ति दो प्रकार की होती है। (धवला 6/42)
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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