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________________ 154 क्षयोपशम भाव चर्चा मोक्ष के कारण का अभाव होने से मोक्ष का ही अभाव हो जाएगा, अत: इस प्रकरण के निष्कर्ष के रूप में आचार्य अमृतचन्द्रदेव स्वयं लिखते हैं - सम्यक्त्व-बोध-चारित्र-लक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः। मुख्योपचाररूपः, प्रापयति परं पदं पुरुषम् / / अर्थात् इस प्रकार यह पूर्वकथित निश्चय और व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र लक्षणवाला मोक्ष का मार्ग, आत्मा को परमात्मपद प्राप्त करा देता है। ___ भावार्थ यह है कि अष्टांग-विध सम्यग्दर्शन, अष्टांग-विध सम्यग्ज्ञान और मुनियों के महाव्रतरूप आचरण सहित त्रयोदशांग-विध सम्यक्चारित्र को व्यवहाररत्नत्रय कहते हैं तथा अपने आत्मतत्त्व का परिज्ञान (श्रद्धान-ज्ञान) और उसी में निश्चल (लीन) होने को निश्चय-रत्नत्रय कहते हैं। यह दोनों प्रकार का रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है: जिसमें से निश्चय-रत्नत्रय. साक्षात् मोक्षमार्ग है और व्यवहार-रत्नत्रय, परम्परा मोक्षमार्ग है। पथिक के उस मार्ग को, जिससे कि यह अपने अभीष्ट देश को क्रम से स्थान-स्थान पर ठहर कर पहँचता है, परम्परा मार्ग कहते हैं और जिससे अन्य किसी स्थान में ठहरे बिना ही सीधा इष्ट देश को पहुँचता है, उसे साक्षात् मार्ग कहते हैं। ___ व्यवहार-रत्नत्रय अर्थात् सराग-चर्यारूप चारित्र, पुण्यबन्ध का कारण है, अपराध है; अतः हेय है तथा निश्चय-रत्नत्रय अर्थात् वीतराग-चारित्र, संवरनिर्जरा का कारण है, शुद्धभाव है; अतः उपादेय है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय शास्त्र के उक्त श्लोकों में प. पू. श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ने सतर्क व्याख्या द्वारा यह बात स्पष्ट कर दी कि जिस शुभभाव से तीर्थंकर नामकर्म नामक महा-पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है, वह भाव भी अपराध है अर्थात् रागभाव का होना, वह आत्मा की भाव-हिंसा है; इससे श्रद्धा के धरातल पर यह बात यथार्थ ही है कि जीव के वे सब भाव (मोह-जन्य परिणाम) जिनसे कर्मास्रव-बन्ध होता है, हेय ही हैं; क्योंकि वे अपने शुद्धभावों के घातक है। ____ आत्मोन्नति के इस मार्ग में सर्वप्रथम गृहीत मिथ्यात्व का जाना (त्याग) होता है, अशुभभावों का आना रूकता है और शुभभावों का आना प्रारम्भ होता है। पश्चात् करणलब्धि पूर्वक स्वात्मोन्मुखी उपयोग की दशा में सम्यग्दर्शन प्रगट होता
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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