SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम चर्चा : शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा 155 है, शुद्धभावों का अंकुरण होना होता है और क्रमापतित सरागचारित्र के ग्रहणपूर्वक स्वरूप-स्थिरतारूप शुद्धभावों की वृद्धि होते-होते (स्वरूप-अस्थिरतारूप सरागचारित्र के शुभपरिणाम गौण होते-होते) पूर्ण शुद्धता प्रगट हो जाती है, अशुद्धता का सर्वथा अभाव हो जाता है। मुक्ति के मार्ग की यही प्रक्रिया है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी के शब्दों में - 'इसलिए बहुत क्या कहें ? ... जिस प्रकार रागादि मिटाने का श्रद्धान हो, वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, जिस प्रकार रागादि मिटाने का जानना हो, वही जानना सम्यग्ज्ञान है तथा जिस प्रकार रागादि मिटें, वही आचरण सम्यक्चारित्र है - ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।' .... तथा कितने ही जीव ऐसा मानते हैं कि जानने में क्या है, कुछ करेंगे तो फल लगेगा - ऐसा विचार कर, व्रत-तप आदि क्रिया ही के उद्यमी रहते हैं और तत्त्वज्ञान का उपाय नहीं करते, सो तत्त्वज्ञान के बिना महाव्रतादि का आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पाता है और तत्त्वज्ञान होने पर (प्रारम्भ में) कुछ भी व्रतादिक नहीं है, तथापि असंयत सम्यग्दृष्टि नाम पाता है; इसलिए पहले तत्त्वज्ञान का उपाय करना, पश्चात् कषाय हटाने के लिए बाह्य साधन करना। .....क्योंकि सम्यग्दर्शन की भूमिका के बिना व्रतरूपी वृक्ष नहीं होते।' (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 213) ___ सम्यग्दृष्टि, जो भी व्रत-नियमरूप प्रतिज्ञा करते हैं, सो तत्त्वज्ञानपूर्वक ही करते हैं। ज्ञानी का प्रयोजन वीतरागभाव है, अत: सर्व विचार कर, जैसे वीतरागभाव बहुत हो, वैसा करें, क्योंकि मूलधर्म वीतरागभाव है। प्रवचनसार में आत्मज्ञानशून्य संयमभाव को अकार्यकारी कहा है; इसलिए सर्व प्रकार के मिथ्यात्वभाव छोड़कर, सम्यग्दृष्टि होना योग्य है। संसार-परिभ्रमण का मूल मिथ्यात्व (अतत्त्व-श्रद्धान) ही है, मिथ्यात्व के समान अन्य पाप नहीं है। परद्रव्य-परभावों से भिन्न निजशुद्धात्मा का अनुभव, सच्चा मोक्षमार्ग है, निश्चय-मोक्षमार्ग है तथा (बाह्य) व्रत-तप आदि मोक्षमार्ग है नहीं, निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार से इनको मोक्षमार्ग कहते हैं, इसलिए इन्हें व्यवहार कहा है। भूतार्थ-अभूतार्थ मोक्षमार्गपने से इनको निश्चय-व्यवहार कहा है, सो ऐसा ही मानना चाहिए, परन्तु यह दोनों ही सच्चे मोक्षमार्ग हैं, इन दोनों को उपादेय मानना, तो मिथ्या(भ्रम)बुद्धि ही है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy