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________________ सप्तम चर्चा : शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा 153 वस्तुतः गुणस्थानों के अनुसार मुनिजनों के जहाँ भेदाभेदरूप रत्नत्रय की आराधना होती है, वहाँ उनके अट्ठाईस मूलगुणों के पालनेरूप भेद-रत्नत्रय अर्थात् शुभोपयोग का भी अनुष्ठान होता है, यही शुभोपयोगरूप सरागचारित्रांश, देवायु-प्रमुख पुण्य-प्रकृति-बन्ध का कारण है अर्थात् इस पुण्यप्रकृति-बन्ध में एक मात्र भेद-रत्नत्रयरूप शुभोपयोग का ही अपराध है, अभेद (निश्चय) रत्नत्रय का नहीं। सारांश यह निकला कि निश्चय-रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) पुण्यप्रकृतियों के बन्ध का भी कारण नहीं है, यह तो एकमात्र संवर-निर्जरास्वरूप ही है, प्रगट वीतराग निर्मल पर्यायांशरूप ही है। सराग-चारित्र तो चारित्र-मोह के देशघाती-स्पर्द्धकों के उदय से होनेवाला महामन्द प्रशस्त रागरूप भाव है; वह चारित्र का मल है, उसे छूटता न जानकर ज्ञानी मुनिराज उसका त्याग नहीं करते, सावद्य-योग का ही त्याग करते हैं, परन्तु इस सरागभाव में संवर-निर्जरा के भ्रम से प्रशस्त रागरूप कार्यों को उपादेयरूप श्रद्धान नहीं करते। फिर प्रश्न (शंका) है कि रत्नत्रय को पुण्यबन्ध का कारण कैसे कहा है? उसका समाधान करते हुए कहते हैं - एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि। इह दहति घृतमिति यथा, व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः / / अर्थात् निश्चय से एक वस्तु में अत्यन्त विरोधी दो कार्यों के भी मेल से वैसा ही व्यवहार, रूढ़िवशात् प्राप्त होता है। जैसे, इस लोक में घी जलाता है', इस प्रकार कहावत प्रसिद्ध है। भावार्थ यह है कि जैसे - अग्नि, दहनरूप कार्य में कारण है और घृत, अदहनरूप कार्य में कारण है, परन्तु जब इन दोनों अत्यन्त विरोधी कारणों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, तब कहा जाता है कि इस पुरुष को घृत ने जला दिया।' इसी प्रकार शुभोपयोग, पुण्यबन्धरूप कार्य में कारण है और रत्नत्रय मोक्षरूप कार्य में कारण है, परन्तु जब क्षायोपशमिक चारित्र के रूप में (गुणस्थान की आरोहण-परिपाटी में) दोनों एकत्र होते हैं, तब लोक-व्यवहारवत् उपचार से यह कहा जाता है कि रत्नत्रय से बन्ध हुआ। यदि यथार्थ में रत्नत्रय को ही बन्ध का कारण मान लिया जाएगा, तब फिर
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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